बीजेपी बनाम मोदी का असली सच
देश के दूसरे सबसे बड़े राजनीतिक दल बीजेपी में फिर एक बार अनिश्चितताओं के
बादल छा गए हैं। यह पार्टी स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस का विकल्प बनकर तो उभरी।
मगर वह भी अपने संगठन में कांग्रेस की तरह
ही कुछ मामलों में स्वस्थ परंपराओं को अपनाने से मुंह मोड़ती रही। कमोवेश बीजेपी
भी कांग्रेस के ही राह पर चल निकली। बीजेपी अपने दल के भीतर ही पब्लिक लीडरशीप के
चयन और लांचिंग की स्वस्थ परंपरा नहीं डाल सकीं। अपने संस्थापक अटल बिहारी बाजपेयी
के सक्रिय रहने तक तो सब ठीक चलता रहा। लेकिन अपने दूसरे आधार स्तंभ लालकृष्ण
आडवाणी के रहते ही महत्वाकांक्षाओं ने आकार ले लिया। वहीं कांग्रेस में भले वंशवाद
के सहारे ही सही, नेतृत्व पर पार्टी की अंध सहमति रहने से कांग्रेस में कोई
पेशोपेश की स्थिति नहीं बनती। बीजेपी एक दशक से सत्ता से बाहर चल रही है। अब 2014
में होने वाले लोकसभा के आम चुनाव के लिए प्रधानमंत्री पद के दावेदार के लिए मची
आंतरिक होड़ ने पार्टी को बीच भंवर ला खड़ा कर दिया है।
बीजेपी पार्टी के भीतर आंतरिक प्रजातंत्र की दुहाई देकर अनेक अवसरों पर छद्म
प्रजातंत्र को पोषित करती रही है। 2003 में मध्यप्रदेश में हुए विधानसभा के आम
चुनावों में घोषित मुख्यमंत्री उमा श्री भारती से विधायकों का अपना नेता चुनने का
संवैधानिक अधिकार तक छीन लिया। मध्यप्रदेश विधान सभा चुनावों में जनता ने उमा
भारती को भारी बहुमत से विजयी बनाया था। फिर भी 2005 में शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री
मनोनीत कर मध्यप्रदेश भेजा। जो प्रदेश की छः करोड़ जनता के साथ किसी छलावे से कम
नहीं था। प्रोजेक्टेड सीएम के विषय पर दलील दी जाती रही कि जनता ने उमा भारती को
नहीं पार्टी को वोट दिए। संगठन की सर्वोंपरिता के बहाने हुआ ये सब संवैधानिक तौर
पर कैसे सुप्रीमों ठहराया जा सकता है।
अब लोकसभा के आगामी आम चुनावों से पहले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी
को बतौर प्रधानमंत्री लांच करने के ऊहापोह में उलझ गयी है। अपने नेता चयन के मामले
पर पार्टी कोई स्पष्ट और हार्ड स्टैंड नहीं ले पा रही है। मोदी पार्टी के लिए
जिताऊ उम्मीदवार होने के साथ जनता के लिए एक अच्छे पीएम हो सकते है। इन सबके
बावजूद अहम् के रास्ते आगे बढ़ रही महत्वाकांक्षा और आम सहमति में संतुलन बिठाने
की बजाय, पार्टी में फिर एक बार अप्रिय परंपराओं को स्थापित किया जा रहा है। नरेन्द्र
मोदी की व्यक्तिगत अनबन के चलते बीजेपी के पूर्व राष्ट्रीय संगठन महामंत्री संजय
जोशी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। पार्टी को उनकी सेवाओं और
समर्पण से भी कोई सरोकार नहीं रहा। ऐसा ही कुछ उमा भारती के मामलें पर संघ परिवार
के अप्रत्याशित मौन ने तो समर्पण को स्तब्ध ही कर दिया था। लगता है बीजेपी मिशन
2014 की पूर्व संध्या पर एक बार फिर अपनी पुरानी राह पकड़ बैक रोल में आ गयी है। शायद
मोदी ने भी पार्टी से जो सींखा है उसी को ध्यान में रख एक-एक कदम फूंक-फूंककर रख
रहे है। दूसरी ओर पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी रूठे बैठे है। वे खुद
नहीं तो कम से कम अपनी शागिर्द सुषमा स्वराज को पीएम की कुर्सी पर देखना चाहते है।
अब ऐसे में देखना है क्या पार्टी अपने नेता
के चयन के लिए किसी स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपनाने की पहल करेगी ? जो पार्टी में
निजी महत्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाने बीजेपी के लिए वरदान साबित होगी।
(ऊँ राष्ट्राय स्वा:, इदम् राष्ट्राय,
इदम् न मम् !) 10 जून 2012
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