अरविंद
केजरीवाल की अलख
अन्ना हजारे के आंदोलन से देश की जनता की हथेली
पर बढ़ती इस अभिशाप की रेखा को रोकने आशा की किरण भी दिखाई दी। अगस्त 2011 के अनशन
के समय देश की लगभग समूची जनता अन्ना के साथ खड़ी हो गई। इससे देश आशा से गदगद हो
गया। संसद ने भी जन इच्छा को भापकर, लोकपाल बनाने पर अपनी सैद्धांतिक सहमति दे दी।
स्तब्ध करने वाली बात है कि इसे अमली जामा पहनाने में संसद अपना वचन पूरा न कर
सकीं। देश की जनता उस समय सकते में आ गयी जब अन्ना हजारे का आंदोलन आंतरिक मतभेदों
के चलते बिखर गया। जो पहले से इस आंदोलन में नजर आ रहा था वही हुआ। आंदोलन के सभी
अहम सदस्य अपने आपकों किसी से छोटा समझने को तैयार नहीं थे। उनके हावभाव और आपसी
प्रतिस्पर्धा ये साफ बया कर रहे थे। इस आंदोलन की उम्र अधिक नहीं। कोई अपने आप को पुरस्कार
प्राप्त आईपीएस, तो कोई अपने आपको को सीनियर विधि विशेषज्ञ समझ केजरीवाल को सहन
नहीं कर रहे थे। अन्ना के बाद दूसरे नम्बर पर कौन ? की इस आपसी धक्का-मुक्की में कोई स्टेज पर नहीं बचा। मंच ही गिर गया।
खैर जो भी हुआ वो एकाएक न होकर साफ नजर आने वाली एक स्वचालित प्रक्रिया थी। जिसने भारत की जनता की हथेली पर भ्रष्टाचार की गहरी रेखा खींच दी। जिसे शायद आने वाले अगले कई सालों तक मिटाया न जा सकें। अब शायद कब कोई दूसरा अन्ना समय चुन पायेगा या नहीं। इसका जवाब किसी के पास नहीं है। बड़ी मुश्किल से देश में समय ने कोई सर्वमान्य अन्ना चुना था। जिसमें लोगों अपना सुखद भविष्य नजर आने लगा था।
खैर जो भी हुआ वो एकाएक न होकर साफ नजर आने वाली एक स्वचालित प्रक्रिया थी। जिसने भारत की जनता की हथेली पर भ्रष्टाचार की गहरी रेखा खींच दी। जिसे शायद आने वाले अगले कई सालों तक मिटाया न जा सकें। अब शायद कब कोई दूसरा अन्ना समय चुन पायेगा या नहीं। इसका जवाब किसी के पास नहीं है। बड़ी मुश्किल से देश में समय ने कोई सर्वमान्य अन्ना चुना था। जिसमें लोगों अपना सुखद भविष्य नजर आने लगा था।
(ऊं राष्ट्राय स्वाहा, इदम् राष्ट्राय, इदम् न मम्)
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