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Thursday 26 December 2013

अरविंद केजरीवाल की अलख


अरविंद केजरीवाल की अलख
हाल ही के वर्षों में देश में भ्रष्टाचार डरा है...सहमा है.....ठिठका है......संयमित हुआ है......सोच में पड़ गया है। ये सब किसी सरकार या प्रशासनिक तंत्र की इच्छा शक्ति के जरिए नहीं हुआ। ये सब उन चंद साहसी लोगों के कारण संभव हो रहा है। जो समाज सेवा, प्रशासन, मीडिया में निडरता से साहस का परिचय दे रहे हैं। इनमें वे लोग भी शामिल है जो शासकीय प्रक्रिया को आधुनिक तकनीक से पारदर्शी बनाने में लगे हैं। 90 के दशक से शुरू हुई उदारीकरण की प्रक्रिया ने देश को तेज गति से भ्रष्टाचार की गिरफ्त में ले लिया। पूंजीवाद की ओर बढ़ते भारत में जिसे भी अवसर मिला उसने जमकर पूंजी बटोरी। लोग कंगाल से कुबेर बन गएं। गरीबों के हाथों में अब कटोरा आने की नौबत आन पड़ी हैं।
अन्ना हजारे के आंदोलन से देश की जनता की हथेली पर बढ़ती इस अभिशाप की रेखा को रोकने आशा की किरण भी दिखाई दी। अगस्त 2011 के अनशन के समय देश की लगभग समूची जनता अन्ना के साथ खड़ी हो गई। इससे देश आशा से गदगद हो गया। संसद ने भी जन इच्छा को भापकर, लोकपाल बनाने पर अपनी सैद्धांतिक सहमति दे दी। स्तब्ध करने वाली बात है कि इसे अमली जामा पहनाने में संसद अपना वचन पूरा न कर सकीं। देश की जनता उस समय सकते में आ गयी जब अन्ना हजारे का आंदोलन आंतरिक मतभेदों के चलते बिखर गया। जो पहले से इस आंदोलन में नजर आ रहा था वही हुआ। आंदोलन के सभी अहम सदस्य अपने आपकों किसी से छोटा समझने को तैयार नहीं थे। उनके हावभाव और आपसी प्रतिस्पर्धा ये साफ बया कर रहे थे। इस आंदोलन की उम्र अधिक नहीं। कोई अपने आप को पुरस्कार प्राप्त आईपीएस, तो कोई अपने आपको को सीनियर विधि विशेषज्ञ समझ केजरीवाल को सहन नहीं कर रहे थे। अन्ना के बाद दूसरे नम्बर पर कौन ? की इस आपसी धक्का-मुक्की में कोई स्टेज पर नहीं बचा। मंच ही गिर गया। 
खैर जो भी हुआ वो एकाएक न होकर साफ नजर आने वाली एक स्वचालित प्रक्रिया थी। जिसने भारत की जनता की हथेली पर भ्रष्टाचार की गहरी रेखा खींच दी। जिसे शायद आने वाले अगले कई सालों तक मिटाया न जा सकें। अब शायद कब कोई दूसरा अन्ना समय चुन पायेगा या नहीं। इसका जवाब किसी के पास नहीं है। बड़ी मुश्किल से देश में समय ने कोई सर्वमान्य अन्ना चुना था। जिसमें लोगों अपना सुखद भविष्य नजर आने लगा था।
अब अरविंद केजरीवाल अलख जगाए, आशा की जोत देश को दिखा रहे है। अब लोगों को व्यक्तिगत तौर पर बदनाम करने के आरोप केजरीवाल पर लग रहे है। उनके बारे में कहा जा रहा है कि वे लोगों को बदनाम कर केवल चर्चाओं में रहना चाहते है। मगर केजरीवाल पर आरोप लगाने वाले कोई विकल्प नहीं सुझा रहे हैं। भ्रष्टाचार के विरोध में अलख लेकर आगे कौन चलेगा ? बड़े-बड़े लोगों के विरोध में मुंह खोलने का साहस कौन करेगा ? भले ही मामला अंजाम तक न पहुंचे। लेकिन इसे शुरूआत तो माना ही जा सकता है। और ये कोई सामान्य परिवर्तन न होकर हमारे देश में प्रजातंत्र के परिपक्व होने का परिचय भी तो दे रहा है। जहां कोई सामान्य व्यक्ति भी बड़े से बड़े के काले कारनामों को उजागर करने का साहस कर रहा है। मुझे तो लगाता है इसे एक स्वस्थ परंपरा के तौर पर हमें इसे स्वीकार कर लेना बेहतर होगा। इससे हमें एक ओर व्यावहारिक जन लोकपाल मिल जायेगा। तो दूसरी ओर लालफीताशाही, भाई-भतीजावाद, आर्थिक व्यय के भार से मुक्ति मिलेगी। वहीं शिकायतों का ढेर नहीं लगेगा।
इस व्यावहारिक जन लोकपाल के अस्तित्व मात्र से ही पूरी तरह से तो नहीं, काफी हद तक भ्रष्टाचार कम होगा। इसके होने का डर ही अपराध करने से पहले व्यक्ति को ठहर कर सोचने पर विवश करेगा। यहीं व्यावहारिक जन लोकपाल आगे चलकर वैधानिक लोकपाल का पूरक और एक अच्छा हमसफर सहयोगी साबित होगा। कोई तो अलख जगाने वाला चाहिए। जो राजघाट की अमर ज्योति को अपनी स्मृति में रखकर। कपूर की जोत हथेली पर जलाकर अडिग रहे। यहीं टिमटिमाती लौ आगे समय आने पर ज्वाला बनकर बुराई का अंत कर सकती है। इस सोच को लेकर तो हम अरविंद केजरीवाल को धन्यवाद दे ही सकते हैं। अलख निरंजन......कांटा गड़े ना कंकर....!
(ऊं राष्ट्राय स्वाहा, इदम् राष्ट्राय, इदम् न मम्)
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