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Sunday, 19 October 2014

लोकल गवर्मेंटों की राजनीतिक कमियां हो पूरी ..........!

स्थानीय जन प्रतिनिधि राजनीतिक शपथ और विनियमन के हकदार .......... !


1.  स्थानीय जन प्रतिनिधित्यों को मिलेगा या लेंगे सम्मान ……. ?
2.  महिला स्थानीय जन प्रतिनिधियों के पतियों का दखल हो प्रतिबंधित  
3.  नगर निगम और नगर पालिकाएं अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली की बनें गंभीर और समन्वित प्रशिक्षण स्थल
4.  किसी भी व्यक्ति को दोबारा ना मिले चुनाव में टिकट
5.  स्थानीय चुनाव बनें राजनीतिक दलों की प्रयोगशाला

दिसम्बर 2014 में प्रदेश के नगरीय निकायों और जनवरी 2015 में ग्राम पंचायतों के चुनाव होने जा रहे हैं। ये लोकल गवर्मेंट हमारे प्रजातंत्र की प्राथमिक पाठशाला और प्रयोगशाला हैं। जहां हमारे लोकतंत्र को मजबूत आधार और विस्तार मिलता है। यहीं भावी राजनीतिक सदस्य तैयार होते हैं। भले ही शुरूआत में इस क्षेत्र में कुछ गल्तियां होती हों। भारत के पहले प्रधानमंत्री ने ठीक ही कहा था – प्रारंभ के समय में हमारे जन प्रतिनिधि भले ही कितनी गल्तियां करें। उन्हें करने देना चाहिए। और स्थानीय लोगों को हमें बार-बार अधिकार देना चाहिए। यहीं वो लोग है जो आगे चलकर परिपक्व होकर व्यवस्था को आधार और दिशा देंगे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी ने तो स्थानीय शासन के जरिए ही देश में राम राज लाने का सपना देखा था।
हमारे पूर्वजों और लाभ की भावना को देखकर सबसे पहले स्थानीय जन प्रतिनिधियों को जीतने के बाद राजनीतिक शपथ दिलवाना चाहिए। उनके कार्यकाल का विनियमन भी किसी राजनीतिक व्यक्ति ने करना चाहिए। प्रशासनिक व्यक्ति ने नहीं। इससे जमीनी स्तर पर सरकार की अगुवाई करने वाले लोगों की गरिमा और उत्साह में बढ़ोत्तरी होगी। उमंग से भरकर वे निष्ठा और ईमानदारी से विकास कार्य करेंगे। अपनी शिकायत को अपने राजनीतिक वरिष्ठ के पास खुलकर निडरता से बोल सकेंगे। प्रशासन की प्रक्रिया के लंबे, नीरस, और उलझनों में उलझी दुरूह निर्णय प्रक्रिया के दूर हो जाने पर स्थानीय जन प्रतिनिधी विमुख नहीं हो पायेंगे। स्थानीय स्तर पर चुने हुए नेताओं को शपथ दिलाने और उन्हें विनियमन के ये दोनों काम अभी प्रत्येक जिले के कलेक्टर करते हैं।
बोला जाता है। स्थानीय प्रतिनिधियों के बड़े विस्तार और संख्या अधिक होने के नाते उन्हें किसी राजनीतिक व्यक्ति के द्वारा शपथ दिलाना या सीधे नियंत्रण में लेना व्यावहारिक नहीं है। इससे संबंधित व्यक्ति के पास काम इतना अधिक बढ़ जायेंगा कि जिसे व्यावहारिक तौर क्रियान्वित कर पाना कठिन और खर्चीला होगा। सबसे बढ़कर इस काम से नीचलें स्तर पर राजनीति प्रवेश कर जायेंगे। जो राजनीतिक रूप से कम अनुभवी इन लोगों और समाज के लिए ठीक नहीं है। कारण अनेक है, लेकिन हमें कदम बढ़ाना तो होगा।
माना !  राज्यपाल एक संवैधानिक पद है। महामहिम को ये अधिकार देना व्यावहारिक नहीं है। रही बात मुख्यमंत्री की तो इससे उनके काम में भारी विस्तार हो जायेंगा। इसका प्रभाव प्रदेश के शासन कार्यों पर पड़ेगा। इन सभी बाधाओं के बावजूद हम इतना तो कर ही सकते है। नगरीय निकायों के चुने हुए जन प्रतिनिधियों को प्रदेश के नगरीय निकाय और स्थानीय शासन मंत्री से शपथ दिलाकर। सीधे उन्हें इनके नियंत्रण में दिया जा सकता है। इसी भांति ग्राम पंचायतों के चुने हुए लोगों को प्रदेश के पंचायत और ग्रामीण विकास मंत्री से शपथ दिलवाकर। इन्हें भी इस मंत्री के अधीन विनियमन के दायरे में लाकर निजात दिलाई जा सकती है। इससे हमारा राजनीतिक लक्ष्य भी पूरा होगा, और ज्यादा कोई व्यावहारिक कठिनाई भी नहीं आयेंगी। प्रजातंत्र के इस पवित्र काम को प्रदेश की राजनीति स्वयं आगे बढ़कर पूरा करेंगी या नहीं। या फिर इस काम को पूरा करने के लिए जन प्रतिनिधी स्वयं आगे बढ़कर शासन से मांग करेंगे। ये समय बतायेंगा।
स्थानीय स्तर पर मध्यप्रदेश ने महिलाओं के लिए लोकल चुनावों में 50 स्थान आरक्षित किए हैं। इस कदम से महिलाओं को स्थानीय शासन में प्रशंसनीय प्रतिनिधित्व मिल रहा हैं। स्थानीय शासन में आये क्रांतिकारी बदलाव के इस शुरूआती दौर में पुरूषों ने अपनी पुरातन मानसिकता के चलते कहों या मजबूरियों के। एक नई अवधारणा पतिवाद चला रखी है। महिलाएं इस क्षेत्र में बड़े तौर पर अपने राजनीतिक हक के प्रयोग के मामलें में आज भी पृष्ठ भूमि में दबी हुई हैं। कहीं शिक्षा के बहाने कहो या उम्मीदवार नहीं मिलने के बहाने। या फिर आर्थिक कमजोरी के। या दबंगाई के डर से। बात एक है। सुधार होना जरूरी है। तभी हम बिना लिंग भेदभाव के वास्तविक स्थानीय प्रजातंत्र बना पायेंगे। बड़े आकार ले चुके इस पतिवाद को शासन ने आगे बढ़कर अवश्य रोकना चाहिए। कोई कानून बनाकर कठोरता से क्रियान्वित होना श्रेष्यकर होगा।
हमारी संसदीय शासन प्रणाली की कमियों को दूर करने विकल्प के तौर पर हमने नये नगर

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पालिका और नगर निगम अधिनियम में अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली को अपनाया है। इन दोनों शहरी संस्थाओं को स्थानीय सरकार के साथ मिलकर राज्य सरकार को गंभीर और समन्वित राजनीतिक प्रयास करना चाहिए। समय-समय पर रिफ्रेशर ट्रेनिंग देना होगी। अध्यक्षात्मक शासन की अवधारणा और महत्व समझाना होगा। इस पावन काम को स्थानीय प्रतिनिधित्व करने वाले लोग भी गंभीरता से लें। तभी हम प्रजातंत्र की अगुवाई करने वाली इस अवधारणा में से अच्छी बातें ले सकेंगे। हमारे लोकतंत्र को स्थीर मजबूती दे सकेंगे।
जनता के तंत्र की विशेषता है। यह किसी व्यक्ति विशेष, परिवार, समूह या संगठन का नहीं हैँ। यह सब लोगों का हैं। इस पर सबका नैसर्गिक हक है। बारी-बारी से व्यवस्था को चलाने का अधिकार देश के हर नागरिक को मिलना चाहिए। ऐसा व्यवहार में तभी संभव है जब राजनीतिक दल अपने यहां उम्मीदवार बनाते समय पुनर्नियुक्ति के भेदाव के अपने यहां से हटा दें। दोबारा स्थानीय स्तर पर किसी व्यक्ति को टिकट नहीं दें। चाहे वो फिर राजनीतिक पुरस्कार के नाते हो, या व्यक्तिगत राजनीतिक संबंधों के नाते। राजनीतिक धरोहर का स्वामी होने के नाते रिस्तेदारों को बार-बार टिकट देना भी गलत है। इसी तरह अपनी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने के नाते ही क्यों न दोबारा टिकट दिया जाय। अपनाए गये सभी तरीके प्रजातंत्र के मूल सिद्धांत शासन में भागीदारी सभी का हक, के विपरित है।
सभी विशेषकर राष्ट्रीय राजनीतिक दलों से विनम्र अपील हैं। वे आगामी स्थानीय चुनावों में प्रयोग के तौर पर ही सही किसी भी व्यक्ति को दोबारा टिकट नहीं दें। इससे दल विशेष ही वास्तविक तौर पर प्रजातांत्रिक आकार लेगा। लोकतंत्र के मूल सिद्धांत के अनुसार शासन में अधिकतम नागरिकों की भागीदारी सुनिश्चित होगी। अवसर बढ़ने से राजनीति के प्रति लोग अधिक आक्रष्ट होंगे। इन प्रयोगशालाओं से सार्वजनिक जीवन में अधिक अच्छे लोग आयेंगे। प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी, जिससे सार्वजनिक जीवन में सुचिता आयेंगी। निष्ठा का समावेश होगा। राजनीति चलित हो जाने के कारण व्यावसाय के तौर पर अपनाने वालों के लिए राजनीति धरोहर नहीं रह जायेंगी। राजनीति में चल रहे दोष काफी हद तक स्वमेव कम हो जायेंगे। एक विकसित और स्थिर राजनीतिक ढांचे के सहारे, हम भविष्य में विकसित देशों से प्रतिस्पर्धा कर पायेंगे।
(इदम् राष्ट्राय स्वा:, इदम् राष्ट्राय, इदम् न मम्)

Friday, 17 October 2014

गलत कामों की आवाज ना बनें मतदाता ............. !

सार्वजिनक जीवन नैतिक मूल्यों के सहारे बिताया जाता है, जिसमें भौतिक वस्तुओं से विरक्ति सबसे ऊपर होती है। लोक कल्याण ही उसका नित्य कर्म होता है। देश की सारी जनता उसका परिवार। पूरी सार्वजिनक सम्पत्ति उसकी होती है। फिर संग्रह की आवश्यकता की उसे कोई आश्यकता नहीं रह जाती। इस तरह समाज का ये सेवक पूरी निग्रह होता है। उसके जीवन में संग्रह कोई स्थान नहीं रखता।
यही वे कारण सार्वजनिक व्यक्ति को सदियों तक याद किया जाता है। जगह-जगह उसकी मूर्ति लगाकर, सरकारी योजनाओं या संस्थाओं का नाम उस सार्वजिनक व्यक्ति के नाम पर रखकर उसे अमर बनाया जाता है। जो एक आम व्यक्ति को नसीब नहीं होता है। वो लुप्तप्राय जिन्दगी जीता है, और मरने के बाद भी उसे कोई याद नहीं रखता। लेकिन आज मोह सार्वजिनक जीवन में भी व्यक्ति को इन मूल्यों पर जीवन नहीं बिताने देता। वो अपने लिए या अपने सगे-सबंधियों के अतुल सम्पति एकत्र करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता। नैतिक मूल्य उसके सामने बौने और सामयिक तौर पर निर्थक हो जाते है।
इन बातों के होते हुए, यदि देश का मतदाता आंखें मूंदकर भष्टाचार करने वाले के पक्ष में आवाज उठाता है। तो मानसिक तौर पर विकसित हो रहे मतदाता के लिए इससे बढ़कर गलत बात क्या हो सकती हैंजनता के द्वारा ऐसा करने सार्वजिनक जीवन में सुचिता कैसे आयेंगी ?  कोई व्यक्ति यदि सार्वजिन व्यक्ति होते संयम खोकर इन नैतिक नियमों की सीमा रेखा को लांघता है, उसे दंड देने या न देने के लिए सम्बंधित अंगों को अपना करने देना चाहिये। अपराध को सजा होने के बाद, सार्वजनिक जीवन के दूसरे लोगों को आगाह करेगी। वे गलत कामों से दूर रहेंगे। बड़े-छोटे का भेद कम होगा। आम और खास दोनों को अपने गलत काम की सजा मिलेगी। सार्वजिनक जीवन में सुचिता आयेंगी।
सार्वजिनक जीवन में सुचिता लाने सरकार के तीनों अंगों को तत्परता और निष्ठा दिखानी चाहिए। कार्यपालिका और विधायिका के ढीले रवैये ने देश के लोगों में इस काम के लिए निराशा भर दी है। हां ! हॉल ही के वर्षों में न्यायपालिका ने इस गलत काम को लगाम लगाने सक्रियता अवश्य दिखाई है। उसके सामने कोई खास नहीं है। गलत काम करने की कोई मजबूरी नहीं। सब आम की तरह अंदर। रहना-खाना सबके साथ। अपराध की भनक लगते ही बिना समय गवाए व्यक्ति दरवाजे की पीछे। निष्पक्ष जांच होते तक अंदर कीजिए आराम। व्यक्ति विशेष ने सार्वजनिक जीवन का चुना है रास्ता। फिर डर कैसा अच्छे कामों से होना है उसे अमर। बुरे काम हैं गलत।
राजनीतिक मजबूरियों के चलते कहों या राजनीतिक के ढीले रवैये से सार्वजनिक जीवन में सुचिता लाने के काम तेज नहीं हो पा रहे हैं। कार्यपालिका और विधायिका सुचिता को जमीन पर नहीं उतार पा रही है। ऐसे में यदि न्यायपालिका सुचिता लाने सक्रियता दिखा रही है, तो इसमें गलत क्या है ?  न्यायपालिका के द्वारा देश की  जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करने के नाम पर उसे समय-समय पर विधायिका के लोगों द्वारा डटकारा क्यों जाता हैबनायी गई विधि की सीमा रेखा के अंदर उसे न्याय देने की हिदायत दी जाती है। माना विधि बनाना विधायिका का विशेषाधिकार है, जिसके सहारे वो न्यायपालिका को संयमित कर सकती है।
ऐसे में, विकल्प नहीं होने के कारण सार्वजनिक जीवन में सुचिता लाने के लिए न्यायपालिका ही सक्रियता दिखा रही है। न्यायपालिका ने हॉल ही के सालों में गलत कामों को रोकने जन इच्छा अनुसार अपने कर्तव्य को अमल में लाया है। न्याय पालिका की ही देन है कि उसने गलत काम करने वालों को सलाखों के पीछे धकेलकर मिसाल कायम की। पूर्व संचार मंत्री सुखराम, पूर्व संचार मंत्री ए. राजा, औम प्रकाश चौटाला, लालू प्रसाद यादव, बिहार के पूर्व सीएम जगन्नाथ मिश्र सहित अन्य दिग्गजों की एक लंबी फेहरिस्त है जिसे भी न्याय पालिका ने नहीं बख्शा।    दूर संचार घोटाला, कोल ब्लॉक घोटाला हो या फिर अन्य कोई बड़े से बड़ा घोटाला। न्यायपालिका ने सबका पर्दा फाश किया। अब 18 साल बाद ही सही। तमिलनाडु की पर्व सीएम जय ललिता की बारी आयी है। ऐसा पहली बार हुआ है जब सीएम के पद पर रहते हुए कोई व्यक्ति सलाखों के पीछे गया है। यही नहीं मामले में चार साल की कैद, आगामी 10 साल तक चुनाव लड़ने पर मनाही के साथ 100 करोड़ रूपये का रिकॉर्ड जुर्माना हुआ है। ऐसे में जनता द्वारा न्यायालय के काम में दखल देना और किसी का पक्ष लेना समझ के परे है। जूडिशियल को अपना काम करने देना ही ठीक है।
कार्यपालिका और विधायिका गलत कामों को रोकने गंभीर सक्रियता नहीं दिखा रही है। जो उसका एक पवित्र कर्तव्य है।  ऐसे में ! विकल्प नहीं होने के कारण उसे भरने के लिए मतदाताओं को ये काम करना है। हमें दिखा देना है, कि मतदाताओं की परिपक्व हो रही आयु गलत काम करने वाले किसी व्यक्ति का पक्ष कभी नहीं लेंगी। मतदाता कभी व्यक्ति विशेष के प्रति अंध भक्ति नहीं दिखायेंगे। देश की जनता ने सार्वजनिक जीवन जीने वाले व्यक्ति को युगों तक जीवित रहने के लिए अमरत्व की दौलत कमाने का मौका दिया। ये सबसे बढ़कर है। इसके बाद राह भटक उसने यदि कोई गलत काम किया है, तो वह आम की तरह सजा का भागीदार है। ताकि गलत काम को मिला दंड भविष्य के लिए एक संयम रेखा बनें।
हम युवा मतदाता तभी कहलायेंगे। जब किसी गलत बात की तरफदारी नहीं करेंगे। इससे हमारे देश का प्रजातंत्र एक नया आकार लेकर विश्व की अगुवाई करेंगा। दूसरों के लिए अनुकरण करने वाला बनेगा। ऐसा हम युवा होते मतदाता ही कर सकते हैं। देश की राजनीति को भी गलत काम करने वालों की राह रोकने के लिए मजबूर कर सकते हैं। सरकार को सुचिता की दिशा में चलने की राह दिखा सकते हैं। किसी भी देश की जनता में जब तक नैतिक संवेदनाएं नहीं जागती, तब तक उस देश में मूल्य आधारित जीवन का विकसित होना संभव नहीं है। इस काम को हम मतदाताओं को ही करना हैं।

(इदम् राष्ट्राय स्वा:, इदम् राष्टाय, इदम् न मम्)   

Monday, 13 October 2014

मध्यप्रदेश बनेंगा निवेश का किंगपिन

ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट 2014


1.  100 अरब डॉलर का निवेश भारत के दरवाजे पर
2.  मध्यप्रदेश ने किए 6.89 लाख करोड़ रूपये के निवेश समझौते
3.  17 लाख से अधिक लोगों को मध्यप्रदेश में रोजगार के अवसर मिलेंगे
4.  देश के राज्यों में आगे निकला मध्यप्रदेश
5.  केन्द्र और राज्य में एक पार्टी की सरकार एक सुअवर
6.  निवेश को जमीन पर लाना एक बड़ी चुनौती

आज विश्व में किसी भी देश की अर्थव्यवस्था दिशा के विपरित नहीं बह सकती। उसे अब पूंजीवाद के साथ ही शामिल होकर अपनी भूमिका तय करनी होगी। चाहे राह में कितनी कठिनाईयां क्यों न हमें हर कदम फूंक-फूंक कर रखना होगा। हां हॉल ही में जनसंख्या में सबसे बड़े साम्यवादी देश चीन के राष्ट्रपित चाऊ एन लाऊ ने जरूर एक बड़ी रोचक टिप्पणी की। लाऊ ने कहा प्रजातंत्र का अंधानुकरण ठीक नहीं। 
ईराक, अफगानिस्तान, सीरिया, मिस्त्र सहित अरब के अन्य देशों में आए उथल-पुथल का उदाहरण देकर उन्होंने अपनी बात को उचित ठहराया। सच-गलत जो भी हो लेकिन आज विश्व में लोकतंत्र समर्थक देशों का बहुमत तो तिहाई से भी अधिक है। समय अनुसार हमें बहुमत के साथ चलना होगा। पूंजीवाद के रास्ते ही सही लेकिन हमें हर देश से जुड़कर विश्व अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्धा में सबसे आगे निकलना होगा। उत्पादन बढ़ाकर हमारे विकास के साथ-साथ बाजार तलाशकर उस पर अपना हक जमाना होगा।
भारत में वोटरों ने इस समस्या को हल करने की राह आसान की। उसने विगत लोकसभा के आम चुनावों में एक राजनीतिक दल को रिकॉर्ड बहुमत देकर गठबंधन की मजबूरी को दूर किया। समय की नब्ज को जानने वाले नरेन्द्र मोदी ने भी हिन्दुस्तान के प्रधान मंत्री पर बैठते ही विश्व के देशों की ताबड़-तोड़ विदेश यात्रायें की। आज नरेन्द्र मोदी के प्रयासों से 100 अरब डॉलर का निवेश भारत के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। प्रधान मंत्री मोदी ने भी साहसी आह्वान कर डाला। भारत के जिस राज्य में भी जितना दम है उतना निवेश लेकर अपना कल्याण कर लें। इम मंगल काम में उनका राजनीति से ऊपर उठकर हर प्रदेश को पूरा साथ है।
भारत के ह्रदय में बसने वाले मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी बिना समय गवांए अपने राज्य को देश की अर्थव्यवस्था के ड्राइविंग सीट पर लाने 8, 9 और 10 अक्टूबर 2014 को इंदौर में ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट कर डाली। शिवराज सिंह चौहान ने निवेश को आकर्षित करने के मामलें में देश सभी 29 राज्यों को पीछे छोड़ दिया। उन्हीं के प्रयासों से आज मध्यप्रदेश ने 6.89 लाख करोड़ रूपये के निवेश समझौते किए है। इससे आम आदमी की आय बढ़ने से उसका जीवन खुशहाल होगा।
 इसके साथ ही हर साल राज्य में 17 लाख लोगों को रोजगार के अवसर प्राप्त होंगे। रिकॉर्ड उत्पादन को उपभोग के साथ निर्यात कर मध्यप्रदेश देश ही नहीं विश्व के औधोगिक क्षेत्र में ऊंचाई के स्तर को छुएंगा। इस पवित्र काम को पूरा करने शिवराज को उनकी ही पार्टी के प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी का पूरा साथ है। हमारे ऊर्जावान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान स्वयं निवेश को धरातल पर लाने निरंतर समीक्षा करेंगे। उन्होंने अपने काम को अंजाम तक पहुंचाने निवेशकों के हित में कोई घोषणा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। शिवराज ने सभी बाधाओं को दूर कर निवेशक की पहुंच सीधे मुख्यमंत्री तक बना दी है। 
शिव और नरेन्द्र के इन संयुक्त प्रयासों से प्रदेश में स्टील, फर्टीलाइजर, पेट्रोल, एनर्जी, इंफ्राइंस्ट्रक्चर, उत्पादन, खेती, शिक्षा, हेल्थ, आईटी, पर्यटन, सहित रक्षा में चार चांद लगकर मध्यप्रदेश का डिजिटल राजधानी बनेना का सपना पूरा होना बाकी है। मध्यप्रदेश के पास राजनीतिक स्थिरता, ऊर्जावान खुले दिल का नेतृत्व, शांति, जगह और सस्ता श्रम हैं। अब हमारा ये सपना अवस्य साकार होगा। भारत की तेज गति से रनअप कर रही इस अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक जोर मानव संसाधन तैयार करने कौशल प्रशिक्षण पर दिया जा रहा है। 
इन्हीं प्रक्षित हाथों की आज अधिक जरूरत है। स्कील डेवल्पमेंट के जरिए ही सस्ते रास्ते सरलता से रोजगार प्राप्त किया जा सकता है। मेरा आम आदमी विशेसकर मध्यम या गरीब लोगों से अनुरोध है कि अपने बच्चों को आईटीआई या अन्य किसी स्कील डेवल्पमेंट प्रोग्राम की ट्रेनिंग देकर उन्हें काबिल बनाएं। इससे परिवार ही नहीं घर, समाज, प्रदेश और आखिरकार राष्ट्र हित ही होगा।
(इदम् राष्ट्राय स्वा:, इदम् राष्ट्राय, इदम् न मम्)   

Sunday, 12 October 2014

महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव परिपक्वता दिखाने का एक मौका

मतदाता सही दबायेंगे ईवीएम की बटन

1.  राजनीतिक दलों का टूटा गठबंधन बनेगा वरदान
2.  मतदाता ना चूके ये समय ने दिया ये अवसर
3.  वोटर दें किसी एक राजनीतिक दल को पूरा बहुमत
4.  राष्ट्रीय हित-अहित देखकर ही करें मतदान
5.  अब वोटरों का हर कदम प्रजातंत्र को मजबूती और दिशा देने वाला हो

आगामी 15 अक्टूबर सन् 2014 को महाराष्ट और हरियाणा विधान सभाओं के आम चुनाव हैं। केन्द्र सरकार में लोकसभा के हुए आम चुनावों को हुए अभी आधा साल भी नहीं बीता है। बीते संसदीय चुनावों में मतदाताओं ने जिस प्रकार एक दल को रिकार्ड बहुमत देकर संघ की सत्ता सौंपी वह काबिले तारिफ ही नहीं वंदनीय है। मतदाता ही हैं जिन्होंने देश में गठबंधन को हटाकर किसी एक दल को बिना किसी लाग-लपेट के राज सौंपकर एक सशक्त भारत बनाने की ओर कदम बढ़ाया है। अब गेंद राज करने वाले दल के पाले में है, जिसकी दिशा भविष्य बतायेंगा।
अब यहीं मौका लोकसभा चुनावों के बाद जल्द ही समय ने हमें दिया है। आगामी 15 अक्टूबर 2014 को महाराष्ट्र और हरियाणा में विधान सभा के आम चुनावों की वोटिंग हैं। ये दोनों चुनाव मतदाताओं के लिए तात्कालिक तौर एक सुअवसर हैं। दोनों राज्यों में हो रहे इन चुनावों में भारत के लोकतंत्र को समय ने एक वरदान दिया है। वोटरों को चाहिए की वे एक गलत कदम ना उठाएं। उल्टी दिशा में उठे मतदाताओं के कदम उनकी परिपक्व हो रही मानसिक आयु पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देंगा।
 ऐसी ही कोई गल्ती को होने से रोकने के लिए राष्ट्र वोटरों की ओर आशा भरी नजरों से देख रहा है। भारत को हर हालत में सन् 2020 तक आर्थिक के साथ-साथ राजनीतिक तौर पर भी एक विकसित देश बनकर अपनी असरदार भूमिका निभानी है। हिन्दुस्तान को सर्वधर्म समभाव की राह पर चलकर संसार की अगुवाई करनी है। देश को इस मुकाम तक कोई राजनीतिक दल नहीं बल्कि समझदार मतदाता ही ले जा सकते हैं। महाराष्ट्र और हरियाणा में हो रहे इन चुनावों में मतदाताओं को और कुछ नहीं करना है, बस किसी एक राजनीतिक दल के सिर पर ताज पहनाना है। वोटरों के इस कदम से राजनीति की वॉशिंग तो होगी होगी ही, दूसरी ओर  राजनीतिक दल संयमित ही नहीं आगाह भी होंगे।
महाराष्ट्र में हो रहे विधान सभा चुनावों में चारों बड़े दल स्वतंत्र चुनाव लड़ रहे हैं। आज के युवा मानसिक आयु वाले वोटरों की नजरों के सामने विकास अहम है, तो वहीं देश की एकता और अखंडता सर्वोपरि। परंपरावादी और सकुचित सोच का आज के जीवन में कोई महत्व नहीं। विकास के मुकाम को किसी एक दल को बहुमत देकर ही प्राप्त किया जा सकता है। गठबंधन और क्षेत्रीय दलों को तिलांजली देकर ही देश की एकता और अखंडता को मजबूत बनाया जा सकता है। व्यापक आधुनिक सोच के सामने संकुचित विचार ठहर नहीं पायेंगे। ऐसा नहीं है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में वोटरों ने पहली बार कमजोर शासन को हटाया है। 
इन लोकसभा चुनावों से पहले भी उत्तर प्रदेश, बिहार और दूसरे राज्यों में हुए विधान सभा के आम चुनावों में जनता ने अपनी परिपक्व मानसिक आयु का परिचय देकर एक दल को रिकॉर्ड बहुमत देकर लोकतंत्र को विकसित बनाने का परिचय दिया है। उत्तरप्रदेश में जनता ने पहले दलित की बेटी को मायावती को सराकों पर बिठाया, उसके बाद समाजवादियों को समाज की कमान दी है। भाजपा को साथ लेकर नीतिश कुमार के जरिये बिहार को व्यक्तिवादी शासन के कहर से निजात दिलाई।
मुझे लगता है, महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों में वोटर इस बार अपने दूरगामी लक्ष्य को साधने के लिए केन्द्र में बैठी भारतीय जनता पार्टी की सरकार को देखते हुए, महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों में विजयश्री का ताज भारतीय जनता पार्टी के सिर पर ही पहनाएंगी। बीजेपी की जीत लगभग सुनिश्चित है। 
यदि जनता जनार्दन ऐसा नहीं करना चाहे तो वह अपने प्रदेश की बागडौर भावी महिला मुख्यमंत्री एनसीपी की नेता सुप्रिया सूले को दे सकती है। तीसरे नम्बर पर आती है, स्वर्गीय बाला साहब ठाकरे की पार्टी। लम्बे समय तक सिंहासन सुख भोगने से पैदा बुराईयों के कारण, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का तो इस क्रम में चौथा नम्बर लगता है। आखिर में आती है नई-नवेली महाराष्ट्र नव निर्माण सेना, जिसे अभी और लम्बा संघर्ष करना है। 
रही बात हरियाणा राज्य के चुनावों की तो इस राज्य में लंबे समय से राज कर रही कांग्रेस के बाद जनता शासन क्रम पलटना ही है। इस नाते हरियाणा में भारतीय जनता पार्टी ही स्वाभाविक तौर से सत्ता पर काबिज होगी। हरियाणा में आम आदमी पार्टी विधान सभा के चुनाव नहीं लड़ने के कारण भाजपा के रास्ते में कोई रोड़ा भी नहीं है। मायावादी की बहुजन समाज पार्टी भी हरियाणा के चुनाव मैंदान से बाहर है। वहीं समाजवादियों का का इस राज्य में कोई वजूद नहीं है।
इन द्वन्द्वों के बीच आखिरकार मतदाता विधान सभा के इन चुनावों में किसी एक दल को पूरा बहुमत देकर अपने प्रदेश के साथ-साथ देश के लोकतंत्र को एक मजबूत दिशा देंगे। अपनी मानसिक आयु के बढ़ते ग्राफ को नींचे नहीं ले जायेंगे। देश के साथ-साथ मैं भी जनता जनार्दन की ओर इसी आशा भरी नजरों से देख रहा हूं। मेरे देश वे निराश नहीं करेंगे।
(इदम् राष्ट्राया स्वा:, इदम् राष्ट्राया, इदम् न मम्) 

Sunday, 18 May 2014

जय हो........!

जाति, सम्प्रदाय, वर्ग, भाषा और क्षेत्रीयता के दायरे से बाहर आकर पहली बार किया मतदान


1.  जय हो मतदाता...... जय हो भारत........ जय हो नरेन्द्र मोदी.........!
2.   पूर्ण हुआ विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र
3.   वयस्क हुआ भारत का मतदाता
4.   विश्व गुरू बनने की ओर भारत ने बढ़ाया पहला कदम

2014 के लोकसभा के इन आम चुनावों के परिणामों से आज देश का हर नागरिक रोमांचित है। वह अपने आपकों तरोताजा उत्साहित महसूस कर रहा है। वो अपने सुखद भविष्य के प्रति आशा से लबरेज हो गया है। अब देश के हर नागरिक की सुबह एक नई स्फूर्ति और आत्मबल से होगी। ये सब होगा। क्योंकि अब देश के पास होगा एक प्रभावशाली नेतृत्व। किसी देश, संगठन, समाज या परिवार का नेतृत्व ही उसकी हर सुबह को नई बनाता है। देशवासियों को नीरसता से उबारता है। स्थिर-सशक्त नेतृत्व में देश का हर नागरिक स्वाभिमान महसूस करेगा। देश के लोकतंत्र को ऐसी ऐतिहासिक दिशा देने के लिए जय हो मतदाता.......... ! जय हो भारत.......... ! जय हो नरेन्द्र मोदी....... !
स्वतंत्रता के बाद से देश में सशक्त विपक्ष के अभाव में भारत का लोकतंत्र एक पैर पर ही चलता रहा। स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए चला जन आंदोलन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जब एक राजनीतिक पार्टी बना। तभी भारत के लोकतंत्र का दुर्भाग्य लिख दिया था। जिसमें मौकापरस्त सामंतवादी लोगों ने कब्जा जमा लिया। 1967 तक तो देश में कांग्रेस का एक छत्र राज्य रहा। 1951 में स्थापित जनसंघ ने पहली बार कांग्रेस की अहितकारी नीतियों का विरोध करने का बीड़ा उठाया। गठबंधन के तौर पर 1977 में जनता पार्टी और 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा जैसी गैर कांग्रेसी सरकार अवश्य बनी। लेकिन वो स्थिर नहीं रह पायी। 
भारत का लोकतंत्र एक पैर पर लड़खड़ाता रहा। लंबे संघर्ष के बाद वो समय भी आया जब 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एन.डी.ए. की गठबंधन सरकार बनी। इस गैर कांग्रेसी सरकार ने भी जैसे-तैसे 6 साल खींचे। अटल बिहारी वाजपेयी के चमत्कारिक लीडरशिप के बावजूद ये सरकार भी साथी दलों के ब्लैकमैलिंग की शिकार होने से नहीं बच पायी। बहुमत के अभाव में अटल जी की एनडीए सरकार की उपलब्धि भी देश को राजनीतिक अस्थिरता के दौर से बाहर निकालने तक ही सीमित रही। 1947 में स्वतंत्रता के बाद के इन 66 सालों में 55 साल से अधिक समय तक तो कांग्रेस के हाथ ही देश की बागडौर रही। 
स्वतंत्रता के बाद पहली बार 2014 के इन लोकसभा चुनावों में किसी एक पार्टी बीजेपी को मतदाताओं ने स्पष्ट बहुमत दिया है। और बीजेपी के नेतृत्व वाले इस गठबंधन एनडीए को दो-तिहाई बहुमत के निकट पहुंचाकर भारत के प्रजातंत्र को पूरा कर दिया। अब तक देश का लोकतंत्र एक सशक्त विपक्ष के अभाव में कांग्रेस रूपी एक टांग पर ही चलता रहा। एक पूर्ण बहुमत वाले विपक्ष बीजेपी के रूप में अब भारत के लोकतंत्र को दूसरा मजबूत पैर मिल गया है। स्वतंत्रता के बाद भारत के लोकतंत्र को पूर्ण होने होने में 67 साल से अधिक समय लग गया। आज भारत का लोकतंत्र पूर्ण हो गया।
इन सबके लिए कोई राजनीतिक दल जिम्मेवार नहीं होकर। सीधे-सीधे देश के मतदाताओं को इसका श्रेय जाता है। जिसने पहली बार जाति, सम्प्रदाय, वर्ग, भाषा और क्षेत्रीयता के संकुचित दायरे से बाहर निकलकर वोट किया। वो अब अपने लिए विकास के मायने समझने लगा है। गुमराह करने वाली राजनीति के झांसे में वो इस बार नहीं आया। जय हो मतदाता ........... ! ............धन्यवाद मतदाता............ ! जय हो जनता जनार्दन........ ! जय हो भावी नमो भारत........ !
इन चुनाव परिणामों ने इस बात के प्रमाण दे दिए है कि अब भारत के मतदाता की मानसिक आयु परिक्व पूरी समझ वाली हो चुकी है। अब उसे किसी भी आधार पर बहलाया-फुसलाया नहीं जा सकता। संयुक्त राज्य अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, ईटली जैस राजनीतिक रूप से विकसित देशों के मतदाताओं के समान भारत के मतदाताओं ने भी मानसिक तौर पर परिपक्व आयु को प्राप्त कर लिए। अब वो वयस्क हो गए है। बच्चे नहीं रहें। किसी देश के लिए यही वो स्थिति होती है जहां से राजनीतिक सुधार की प्रक्रियां प्रारंभ होती है। देश का राजनीतिक ढांचा परिपक्वता की ओर कदम बढ़ाता है। राजनीति दलों के मातहत ये काम नहीं होता। 
राजनीतिक दलों में श्रेय लेने की होड़ में अच्छे विषयों पर भी आम सहमति नहीं बन पाती है। दल विशेष तो केवल राजनीतिक सुधार प्रक्रिया के माध्यम बनते है। किसी देश के मतदाता ही दल विशेष को सुधारों के लिए अवसर देते है। प्रेरित करते हैं। मजबूर करते हैं। राजनीतिक बाधाओं को दूर करते हैं। इससे राजनीतिक दल अपने भावी अस्तित्व को बनाये रखने जन इच्छा को आकार देते हैं। इसका शानदार प्रमाण उत्तरप्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों के मतदाताओं ने इन चुनावों में दिया है। इन चुनावों में भारत के मतदाताओं ने वयस्क आयु को छुकर भारत के लिए राजनीतिक रूप से एक विकसित देश बनने की शुरूआत कर दी है। अब आगे देश का सुखद भविष्य गढ़ना बीजेपी के हाथों में है। जय हो भारत.............. ! धन्यवाद भारत........... !
आर्थिक तौर पर प्राचीन काल में सोने की चिड़िया रहा भारत...........। सबकों फूलने-फलने का अवसर देकर। उनकों आत्मसात करने की विशेषता के चलते। भारत विश्व गुरू रहा है। विश्व बंधुत्व हिन्दुस्तान की मूल आत्मा रही है। इन चुनावों के बाद जाने-माने भविष्यवेत्ताओं की वो भविष्यवाणी पूरी होने की संभावनाएं खुल गई है। जिसमें कहा गया है भारत 21वीं सदीं में विश्व गुरू बनकर संसार का मार्गदर्शन करेगा। मतदाताओं ने भी अब की बार देश की बागडौर भारत को पुनविश्व गुरू बनाकर वृहत्तर भारत का सपना दिखाया है। देश की आशा तभी आगे बढ़ेगी। जब देश का मतदाता आगे भी देश के आम चुनावों में किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत देगा। देश का मतदाता स्थिर तार्किक बना रहेगा, डावाडोल नहीं होगा। फिर एक बार जय हो मतदाता.......... !  जय हो भारत ........... ! जय हो नमो भारत ......... !
(इदम् राष्ट्राय स्वा: , इदम् राष्ट्राय, इदम् न मम्)

Monday, 12 May 2014

नरेन्द्र मोदी के ये तीन दिन

बना सकते है रोड मैप


यूपीए सरकार के दस साल शासन करने के बाद, मतदाताओं द्वारा विपक्ष को सत्ता सौंपने की स्वाभाविक प्रक्रिया कहों। या नरेन्द्र मोदी के चुनाव प्रबंधन का चमत्कार। या फिर भारतीय जनता पार्टी के लंबे संघर्ष के बाद, एक सशक्त विपक्ष के रूप में खड़े होना कहों। आंकलन का तरीका जो भी हो। लेकिन बीते कल, 12 मई के आखिरी दौर के मतदान के सम्पन्न होने के बाद नरेन्द्र मोदी का प्रधान मंत्री बनना लगभग तय हो गया है। बस 16 मई को मतगणना की औपचारिकता शेष बची है। ऐसे में 13, 14 और 15 मई के ये तीन दिन मोदी के जीवन में अहम ही नहीं है। बल्कि शायद ही लौटकर आयें। वे इन तीन दिनों के बाद दूसरा कार्यकाल लेकर आगामी दस सालों के लिए भी देश के प्रधान मंत्री के तौर पर काबिज हो सकते है। मोदी के लिए ये तीन दिन आराम-सुकुन भरें तो हो ही सकते है। साथ ही यही वो तीन दिन भी हो सकते है जो मोदी को भूत-भविष्य और वर्तमान के चिंतन का अवसर देने वाले है।
सबसे पहली बात तो संघ ने अपने संगठन सर्वोपरि के सिद्धांत को दरकिनार कर मोदी पर दांव खेल अपनी मूल्यवादी साख की तक चिंता नहीं की। अब मोदी के कर्तव्य में आता है, इसे बरकरार ही नहीं रखे बल्कि इसमें अभिवृद्धि भी करें। अपने राजनीतिक लक्ष्य को साधने अटल बिहारी वाजपेयी के बाद बीजेपी के दूसरे वरिष्ठ स्तंभ लालकृष्ण आडवाणी को तक को चुप करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। बस येन-केन प्रकरेण सत्ता तक पहुंचना ही लक्ष्य बना लिया। भले ही बीजेपी में व्यक्तिवाद ही क्यों न शुरू करना पड़े। नैतिक मूल्यों का जो झंडा देश में कभी स्वयं सेवक लेकर घूमते थे। वो अब आम आदमी पार्टी के लोग लेकर घूम रहे हैं। स्वतंत्रता के प्रारंभिक दौर के घोर अंधकार में जब कांग्रेस का देश में एकछत्र राज था, तब स्वयं सेवक ही थे जो आशाओं का एक टिमटिमाता दीपक हथेली पर जलाये हुए दर-दर पहुंचते थे। और आज उसी का नतीजा है, बीजेपी को देश की बागडौर पूरी तरह मिलने वाली है। महंगाई और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे इस देश में यही टिमटिमाता दीपक बीजेपी ने आम आदमी पार्टी के हाथों में पकड़ा दिया है।
 इस सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देश में कोई भी संगठन, देश के 80 फीसदी लोगों की संवेदनाओं को छूये बिना दीर्घजीवी, स्थिर और प्रजातांत्रिक होने का दावा नहीं कर सकता। पिछली सरकार के सुरक्षा और विदेश नीति पर ढुलमुल रवैये को एक स्पष्ट दिशा देनी होगी, जिसमें भ्रम की कोई गुंजाइश न हो। बल्कि अपने-आप में जन इच्छाएं समेटे होनी चाहिए। लंबे समय से गुजरात में बीजेपी संगठन की प्रजातांत्रिक कार्य शैली, स्वयं सेवकों की संख्यात्मक बढ़ोत्तरी, सूचना के अधिकार आरटीआई के क्रियान्वन और राज्य में लोक आयुक्त जैसी संस्थाओं की सक्रियता पर लगे प्रश्न चिन्हों को हटाना होगा। बीजेपी में राष्ट्रीय स्तर पर संगठन सर्वोपरिता को कायम रखते हुए, उन्हें बीजेपी की उस दुहाई को भी जिंदा ही नहीं, बल्कि उसे फलने-फूलने का अवसर देना होगा, जो बीजेपी लंबे समय से सर्वाधिक प्रजातांत्रिक राजनीतिक संगठन होने की दुहाई दे रहा है।
 इसकी जगह व्यक्ति गुणगान और व्यक्ति सर्वोपरिता घातक होगी। अन्यथा नैतिक मूल्यों की झंडाबदर बीजेपी की चाल ही बदल जायेगी। इससे बीजेपी कांग्रेस की जगह ले लेगी। और आम आदमी पार्टी बीजेपी की जगह खड़ी नजर आ सकती है। विकास ऐसा होना चाहिये जो आम लोगों के दिलों को छूये ना की पूंजीपतियों तक ही नजर आयें। संगठन की सर्वोपरिता धरातल पर आकार लेना चाहिए। स्वयं सेवकों और कार्यकर्ताओं के भावनात्मक लगाव का विस्तार होना चाहिए।
महंगाई को कम करने सीधा तेज प्रहार हो। ताकि ये सरकार सीधे लोगों के दिलों पर राज कर सकें। भ्रष्टाचार के खात्में पर तो देश किसी प्रकार की कोताही बर्दाश्त नहीं करने वाला। पार्टी में अनुशासन के नाम पर किसी के साथ अन्याय न हो।हमारे वरिष्ठों का सम्मान इस प्रकार बरकरार रहे कि अन्दर ही अंदर हमारे कार्यकर्ताओं में विमुखता का भाव न घर कर जायें। हमें इस बात को नहीं भूलना होगा कि बीजेपी ही एक ऐसी पार्टी है जिसके कार्यकर्ता इसके लिए दिल से काम करते है। पूरी तरह प्रतिबद्धता के साथ। इसी का नतीजा है आज बीजेपी पूरे बहुमत के साथ देश की सत्ता संभालने को तैयार है।
 ये सब बीजेपी और स्वयं सेवकों के द्वारा नैतिक मूल्यों की अगवाई करने का ही नतीजा है। लेकिन अब आम आदमी पार्टी इस मुद्दे को अपने पाले में करती नजर आ रही है। भले ही उसमें हमें कुछ शुरूआती बुराई नजर आती हो। जो कभी कांग्रेस ने हमारे भीतर देखी थी। जो भी कोई जमे-जमायें लोगों के विरोध में धारा के विरूद्ध चलने का प्रयास करता है।  उसके ऊपर ऐसे आरोप लगना एक स्वाभाविक है। कांग्रेस के एकछत्र युग में जब बीजेपी और स्वयं सेवक भी ऐसा कर रहे थे तो उनकी भी खिल्ली उड़ाई गई। अनेक यातनाएं सहन करनी पड़ी। अनेकों को अपनी जान यहां तक की परिवार तक गंवाने पड़े। तब जाकर आज हम यहां पहुंचे। इन सबके पीछे था आम लोगों को हमारे भीतर नजर आती अच्छाई, आशा की किरण। 
धीरे-धीरे जनमानस बीजेपी के साथ होता गया। पारदर्शिता, भ्रष्टाचार, महंगाई, संगठन का प्रजातांत्रिक स्वरूप, बुजुर्गों, स्वयं सेवकों, कार्यकर्ताओं का सम्मान। स्पष्ट-स्थिर सुरक्षा और विदेश नीति। आम लोगों के दिलों को छूता राजनीतिक परिवर्तन ही हमारे रोड-मैप का रास्ता हो सकते है। ये तीन दिन ही नरेन्द्र मोदी के लिए अपने अगले-पिछले, अच्छे-बुरें अनुभवों और गल्तियों के विश्लेषण से एक अच्छा चिंतन निकालने वाले साबित हो सकते है। फिर शायद, उन्हें सत्ता की आपाधापी से ऐसा समय न मिले। या फिर वे सत्ता की छाया में सब भूल जाये। अभी ह्रदय निर्मल है। बोझिल नहीं। ये कोई अकेले प्रांत गुजरात की बात नहीं। अब उनके हाथ में पूरा देश होगा। भारत की साख उनके जिम्मे होगी। वो सपना उनके हाथ में होगा जो कभी हजारों लाखों स्वयं सेवकों और बीजेपी के कार्यकर्ताओं ने अपने बलिदान की कीमत चुकाकर देखा था।
 उबले हुए चने की जगह पानी में फूले चने खाकर घर-घर मूल्यों का संदेश घर-घर पहुंचाया। एक मूल्यवादी समाज को गढ़ने के सपने का प्रचार-प्रसा किया था। मोदी स्वयं एक स्वयं सेवक रहे है, जो इन बातों से अनजान कैसे हो सकते है। तो भी.... सत्ता पाई, काही मद ना होई......की कहावत को अपने आड़े आने से रोकना होगा। 16 मई को विजय घोष के साथ यही प्रतिध्वनित होना चाहिए। सबसे पहले भाजपा की जय हो......। उन बड़े बुजुर्गों के आशिर्वाद की जय हो......। जिन्होंने हमें ये विरासत सौंपी। उनके बलिदान की जय हो.....। लोगों के दिलों को जीतने वाले स्यवं सेवकों की जय हो.......। बीजेपी कार्यर्ताओं की प्रतिबद्धता की जय हो.........। उस जनता जनार्दन की जय हो.......। जो हमारी ओर आशा भरी नजरों से देख रही है। और इन सबके बाद अन्तत: नरेन्द्र मोदी के प्रभावशाली नेतृत्व की जय हो......। जिसके सहारे हम एक सशक्त भारत गढ़ने जा रहे है।
(इदम राष्ट्राय स्वा: , इदम राष्ट्राय, इदम न मम्।) 

Wednesday, 9 April 2014

भारत को एक पूर्ण विकसित राष्ट्र बनाने - वोट फॉर मोदी, वोट फॉर इण्डिया

भारत को एक पूर्ण विकसित राष्ट्र बनाने -
वोट फॉर मोदी, वोट फॉर इण्डिया

भारत के महान् स्वपन्न दृष्टा... ! पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत को एक पूर्ण विकसित राष्ट्र के रूप में देखने का सपना देखा था। अटल जी भारत को सन् 2020 तक विश्व की एक आर्थिक और राजनीतिक महाशक्ति बनाने की कार्य योजना पर कार्य कर रहे थे। राजनीतिक विथिकाओं के चलते कहों या हमारी भूल के कारण अटल जी की राहें बाधित हुईं। वे अपने इस पवित्र सपने को आकार नहीं दे सकें। अटल जी भारत को एक विकसित देश बनने की दहलीज तक ले जाने में कामयाब रहे। लेकिन पिछले एक दशक से देश एक विकसित राष्ट्र बनने की बजाय लड़खड़ाता ही रहा। 
पूर्ण विकसित राष्ट्र बनने की दहलीज पार नहीं कर सका। हां पिछले एक दशक में भ्रष्टाचार और महंगाई के नये कीर्तिमान अवश्य सामने आयें। चाहे वह। आर्थिक उदारीकरण के उभारकाल की प्रारंभिक बुराईयों के चलते ये सब हुआ हो। या फिर। वंशवाद की छाया में रिमोटेड लीडरशीप के कमजोर हाथों में देश सौंपने के कारण। आप, हम या कोई और जिम्मेवारी से बच नहीं सकता।
अटल जी के अधूरे रहे। इस राष्ट्र महायज्ञ को पूरा करने। अप्रेल-मई 2014 में होने जा रहें लोकसभा के आम चुनावों के जरिए। अवसर एक बार फिर हम देशवासियों के सामने है। आओं हम सब मिलकर। एक विकसित राष्ट्र बनने की दहलीज पर खड़े भारत को एक पूर्ण विकसित राष्ट्र बनाने के लिए। सबसे पहले देश, सब बातें बाद की वाली सोच के साथ वोट फॉर मोदी, वोट फॉर इण्डिया का रास्ता चुने। देश की बागडौर एक सक्षम नेतृत्व के हाथों में दें। इस सोच के अनेक तार्किक आधार जो हैं
1.              भारत के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देश में एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार जरूरी है। ऐसी सरकार बनाने का पूरा दारोमदार हम मतदाताओं पर है। हमारा एक-एक वोट ही पूर्ण बहुमत वाली सरकार बना सकता है।
2.              अब आप सोचेग, ये कैसे होगा ? बीते सालों में मतदाता देश के कुछ राज्यों में ऐसा चमत्कार कर चुके हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार इसके बेहतर  उदाहरण कहें जा सकते हैं।
3.              किसने सोचा था ? उत्तर प्रदेश से एकाएक विखण्डित बहुमत वाली सरकारे खत्म होकर एक पूरे बहुमत वाली सरकार कायम होगी। लेकिन मतदाताओं ने ही ये हल अपने स्तर पर निकाला। सबसे पहले वोटरों ने मायावती को रिकार्ड दो-तिहाई बहुमत देकर दलितों की शिकायत दूर की। वो एक अलग बात है। 
   मायावती इस अवसर को स्थायी तौर पर संभाल नहीं पायी। अगले ही चुनाव में मतदाताओं ने गल्तियों की सजा देकर मायावती को सत्ता से बाहर किया। इसके बाद भी उत्तर प्रदेश में विखण्डित बहुमत लौटकर नहीं आया। समाजवादी पार्टी को भी दो-तिहाई रिकार्ड बहुमत दिया। भले ही उत्तर प्रदेश की जनता के लिए इस समाजवादी सरकार के अनुभव अच्छें नहीं चल रहे हैं। उत्तर प्रदेश की जनता के इस अच्छे अनुकरणीय व्यवहार को देश के मतदाता राष्ट्रीय स्तर पर अपना सकते हैं। आखिर देश हित का सवाल है। स्थिरता का स्वाल। विकास का सवाल है। महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, आंतरिक और बाह्य सुरक्षा ऐसे अनेक अनुत्तरीत सवाल है, जिनका हल मतदाता ही एक दल को पूरा बहुमत देकर निकाल सकते हैं। जो समय की मांग है।
4.              बिहार में भी मतदाताओं ने अपने स्तर से ही लालू प्रसाद यादव के एक छत्र राज्य से निजात पायी। दहशत भरे माहौल को विदाई दी। विकास की राह को पहचाना। नितिश कुमार को शासन करने का मौका दिया। दूसरी बार भी वोटर किसी के झांसे में नहीं आया। उसने फिर सत्ता की बागडौर नितिश के हाथों में सौंपी। जिसका अच्छा अनुभव हम किसी से छिपा नहीं है। ये सब मतदाताओं की परिपक्व मानसिक आयु के कारण ही संभव हुआ। अब हमारे देश मतदाता स्वयं निर्णय लेने की स्थिती में आ चुके हैं। उसे किसी के सलाह की जरूरत नहीं है। वे अपना अच्छा-बुरा समझने लगे हैं।
5.              देश में चल रहे राजनीतिक दौर में भारतीय जनता पार्टी ही एक ऐसा बेहतर दल है। इसके  पास नेतृत्व का कोई संकट नहीं है। कमोवेश कोई अप्रिय स्थिती उपन्न भी हुई तो नरेन्द्र मोदी के बाद भी पार्टी में नेतृत्व संभालने के लिए नेताओं की एक लंबी फेहरिस्त है। भाजपा के पास एक लंबा संघर्ष और अनुभव है। उसके पास एक स्पष्ट विजन के साथ पार्टी में पर्याप्त मानव संसाधन है। भारतीय जनता पार्टी की संगठन संरचना और कार्य करने की प्रजातांत्रिक प्रक्रिया उसे अन्य दलों से अलग पहचान देती है। भारतीय जनता पार्टी ही वर्तमान परिप्रेक्ष्य में शासन चलाने की दृड़ राजनीति इच्छा शक्ति जाहिर करने की दौड़ में आगे चल रही है। जो शासन व्यवस्था चलाने के लिए जरूरी है।
6.    विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के लिए स्वतंत्रता के बाद सबसे दुखद अनुभव रहा। उसे यूरोपीय देशों की तरह युवा नेतृत्व की परंपरा नहीं मिली। युवा नेतृत्व का सीधा प्रभाव प्रभाव प्रशासकीय कार्य क्षमता पर होता है। यूरोपीय देशों में देश की बागडौर किसी ऐसे नेता के ही हाथ में मतदाता देता है। 
जिसके कार्य करते समय रूमाल पसीने से इतनी भींग जाय कि रूमाल को निचोड़ने पर पसीना टपकने लगे। युवा नेतृत्व की अवधारणा पर भी अभी देश में चल रही दौड़ में नरेन्द्र मोदी सबसे आगे चल रहे है। नरेन्द्र मोदी के पास शासन चलाने का एक लंबा अनुभव है। सबसे बढ़कर उनके पीछे एक बड़े राजनीतिक दल का संबल खड़ा है।
7.              इसमें कोई दो राय नहीं। नैतिक मूल्यों की दुहाई देने में आम आदमी पार्टी सबसे आगे चल रही है। जो समय की मांग के अनुसार लीक से हटकर बदलाव की बात कर रही है। इनके अलावा कोई परंपरागत दल ऐसे बदलाव की पहल का साहस नहीं कर रहा है। चाहे वो भ्रष्टाचार जैसा संवेदनशील मुद्दा ही क्यों न हो। लेकिन इतने बड़े देश में आम आदमी पार्टी के लिए ये सब कर पाना इतना आसान नहीं है। एक स्वस्थ राजनीतिक दल खड़ा करने के लिए हजारों परिवारों, कार्यकर्ताओं को अपने जीवन की आहुतियां देनी पड़ती है। दल में व्यक्तिवाद की जगह प्रजातांत्रिक परंपरा को स्थापित करना आसान नहीं होता। ये सब उस दल विशेष के जन्मदाता के लिए भी संभव नहीं होता। वो भी धृतराष्ट्र की तरह राज मोह नहीं छोड़ पाता।
इस स्वस्थ परंपरा को समय और परिवेश डालता है कोई व्यक्ति नहीं। अब अटल बिहारी वाजपेयी जैसे राजनीतिक मनीषी का जन्म लेना संभव नहीं है। जिनका दाहिना हाथ बनकर लालकृष्ण आडवानी ने बिना किसी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के निष्ठा से काम किया। ऐसी राजनीतिक बेजोड़ जोड़ी शायद भविष्य में देखने को मिले। आज संगठन का युग है। इस युग में किसी भावुक क्रांति को मौका देना नाइंसाफी ही होगी। 
सभ्यता और तकनीकी के उच्च स्तर के इस युग में बुराईयों को धीरे-धीरे ही व्यवस्था से निकाला जा सकता है। एकाएक सख्ती से नहीं। सख्ती का विकल्प प्रशासकीय प्रक्रियागत विकास ही एक बेहतर विकल्प हो सकता है। ये सभी बातें आम आदमी पार्टी के पास नहीं है। अभी उसे अनुभव की जरूरत है। साथ ही उसे संगठन स्तर पर भी स्वस्थ राजनीतिक परंपरा को साबित करना है। दिल्ली में सत्ता संभालने और उसके बाद के हालात पर गौर करें तो आम आदमी पार्टी के मामले में अनुभव अच्छे नहीं कहें जा सकतें।  

ऐसे में आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर वोट करना एक बेहतर सोच का पैमाना नहीं हो सकता। इसमें कोई बुराई नजर नहीं आती। यदि हम आम आमदमी पार्टी को दिल्ली के विधान सभा चुनवों में दोबारा मौका दें। इससे देश को दोहरा लाभ ही होगा। 
इससे एक ओर देश में नैतिक मूल्यों की बायार बहती रहेगी। तो दूसरी ओर आम आदमी पार्टी नैतिक मूल्यों की झंडा बदर बनकर सत्ताधारी दल में भावी विकल्प का डर पैदा कर उसे अच्छे कार्य करने के लिए बाध्य करती रहेंगी। प्रजातंत्र को सफल बनाने का दायित्व भी विपक्ष पर होता है। अन्यथा सत्ता मद-मोह में उलझ जाती है।
8.              सत्ता में निरंतरता एक स्वस्थ व्यवस्था के लिए ठीक नहीं रहती। आलटरनेटिव मौका देना इसकी मूल आवश्यकता होती है। कांग्रेस गत एक दशक से राज कर रही है। तथाकथित तीसरे मोर्चे के सेक्यूलरवाद के प्रोपेगण्डा पर ध्यान देना न्यायोचित नहीं होगा।
9.              अन्ना हजारे के इंडिया अगेनस्ट करप्सन आंदोलन से जो आस जागी थी। उसके के भी कटु अनुभव रहे। ये आन्दोलन अपने पांच लोगों की टीम में एकता कायम नहीं रख पाया। अन्ना हजारे, किरण बेदी, अरविन्द केजरीवाल, प्रशांत भूषण और शांति भूषण पांच एक सूत्र में नहीं रह पायें। श्रेय हाथ से जाने के डर में अन्ना हजारे ने आखिर में अपने जन लोकपाल को दरकिनार कर सरकारी लोकपाल को ही स्वीकार कर लिया। और अब तो चर्चाओं में रहने के अपने मोह के चलते अन्ना हजारे अपने अर्जुन अरविन्द केजरीवाल को छोड़ ममता बनर्जी के रथ के सारथी बनकर चुनावी कुरूक्षेत्र में गीता सुना रहे है। 
    लेकिन शायद ही वे अब कृष्ण बन पाये। क्योंकि ये कलियुग है। अगस्त 2012 के अन्ना के आन्दोलन को देश की दूसरी अगस्त क्रांति और अन्ना को दूसरा गांधी कहना शायद हमारी जल्दबाजी रही हो। इस उदगार के समय हमने अपने अनुभव को गंभीरता से नहीं लिया। 
हम भावुकता के उभार में भूल गए कि देश में बिना द्वैष, ईर्ष्या वाला प्रजातांत्रिक संगठन खड़ा करना आसान नहीं है। जो स्व हित की जगह राष्ट हित को सर्वोपरी माने। जिसमें संगठन की कार्य प्रक्रिया के लिए स्वस्थ परंपराएं हो। जिससे संगठन की निरन्तरता और नवीनता बनी रहे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। ऐसे में हमें भावुकता में अपने वोट का उपयोग न करके अपनी आत्मा की आवाज से श्रेष्ठ विकल्प को वोट करना है।   
            इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए मतदाताओं से आशा ही नहीं उम्मीद है। वें इस बार राजनीतिक आक्षेप की राजनीति पर ध्यान न देकर। केवल और केवल देश के भविष्य को सामने रख वोट करेंगे। एक दल को स्पष्ट दो-तिहाई बहुमत देकर उसे बड़े निर्णय लेने के काबिल बनायेंगे। जोड़-तोड़ और ब्लैकमैलिंग की गठबंधन राजनीति को विदाई देंगे। यह परिवर्तन देश में एक ओर मतदाताओं की परिपक्व सोच का परिचय देगा। तो दूसरी ओर देश में एक सुसुप्त क्रांति लाने के श्रेय का सेहरा भी मतदाताओं के सिर बंधेगा। 
किसी नेता के नहीं। सबसे बड़ी बात मतदाताओं की परिपक्व सोच का यह प्रमाण राजनीतिक दलों में भावी डर पैदा करेंगा। राजनीतिक दलों को समझ में आ जायेंगा कि अब यदि उन्हें बहलाया-फुसलाया तो खैर नहीं। आम आदमी को विकास चाहिए। कटुता से उसे कोई सरोकार नहीं है। यदि आशा के विपरित हुआ तो भविष्य में नया विकल्प चुनने की कूबत अब वोटरों में हैं।
 अब देश की सत्ता उनके अनुसार चलेंगी न कि नेताओं के आपसी हितों के अनुसार। ऐसे में, अप्रेल-मई 2014 में हो रहे लोकसभा के आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ही सबसे बेहतर विकल्प है। देश उम्मीद लगाएं हुए है। इस बार लोक सभा के आम चुनावों में मतदाता राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन की राजनीति की विदाई कर देश को दो-तिहाई बहुमत वाली सरकार उपहार में देंगे। 
जो वर्तमान ही नहीं भावी पीढ़ी के लिए भी रास्ता खोलने वाला साबित होगा। राष्ट कल्याण के इस साध्य को साधने के लिए अभी हमारे सामने एक बेहतर साधन है वोट फॉर मोदी, वोट फॉर इण्डिया.....!
( इदम राष्ट्राय स्वा: , इदम राष्ट्राय , इदम न मम् ! )