Morning Woke Time

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Sunday 30 December 2012

शुभ मंगल हो नव वर्ष

मेरे पांच विचार

  1. देश को चाहिए, एक हिट एंड रन
  2. युवा एकजुट होकर मारे किक
  3. अन्ना के आंदोलन की विफलता ने हथेली पर खींची निराशा की गहरी लकीर
  4. कामयाबी को चूमती और अधिकार सम्पन्न होती बेटियां ना छोड़े संस्कारों का दामन
  5. युवा, गीता पाठ से शुरू करें दिन की शुरूआत

 लो उग आया नये साल का सूरज। आज फिर आया हमारे पीछे-आगे के आंकलन का दिन। ये सुबह आज हमसे कुछ मांग रही है। वो हमे बहुत कुछ देना भी चाहती है। जिससे हमारे समाज, देश और जीवन में शुभ मंगलमय हो...। इस नव वर्ष के आगमन पर भारतीय समाज करवट लेने कराह रहा है। महंगाई की मार ने उसे अधमरा बना दिया है। पूंजीवादी विषधर उसे जकड़ रहा है। भ्रष्टाचार के शोर ने उसे बहरा बना दिया है। उसे कुछ सूझ नहीं रहा है। सच टटोलना उसके बूते से बाहर होता जा रहा है। ये हमारे सौभाग्य की बात हैं। आज हम लोकतंत्र की छाया में जी रहे हैं। यहीं वो लौ है, जो हमें नवजीवन की राह दिखा  सकती है। हम हमारे एक वोट के बल पर आने वाले दो सालों में परेशानियों में काफी हद तक कमी ला सकते हैं।
अन्ना के समाज सेवी आंदोलन ने देश को एकजुट कर देश को आशा से सराबोर कर दिया था। मगर आंदोलन के सदस्यों की निजी महत्वाकांक्षाओं ने इसे ले डूबा। इस विफलता ने देश की हथेली पर एक गहरी ऱेखा खींच दी है। इसका छोर अब और लंबा हो गया है। जो दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है। पता नहीं अपनों गुलामी से छुटकारा दिलाने अब अगले अन्ना कब आयेंगे। देश का यही वो पीकअप समय था। जहां से हम हमारे नेताओं को जन ताकत का एहसास दिला सकते थें। भ्रष्टाचार और महंगाई को लगाम डाल सकते थे। आर्थिक गुलामी धमका सकते थे। लेकन अब वो समय हमारे हाथ से निकल गया है। और अब हमारे सामने फिर गहरा काला अंधेरा छा गया है। समय ने अन्ना को चुना था। लेकिन वे भी मानवीय मोह से ऊपर नहीं उठ पाये। वे इस बात को नहीं समझ पाये कि बिना अर्जुन के महाभारत नहीं जीता सकता। आत्म विश्वास और ऊर्जा से सराबोर अरविंद केजरीवाल के सिर पर हाथ ही रखे रहते तो आने वाले समय की तस्वीर अलग होती। अब तो टीम के लोग एक दूसरे पर वार करने से भी नहीं चूक रहे हैं। नये साल की इस पूर्व संध्या पर हमारे मन में एक सवाल कौंध रहा है। क्या इन विषम परिस्थितियों में देश को एक हिट एण्ड रन की जरूरत है। त्रस्त जनता अंदर से ये सोच भी रही हैं। और आप (आम आदमी पार्टी) की अपनी सरकार बना सकती है। इसमें अप्रत्याशित जैसा कुछ भी नहीं होगा। युवा इसमें अहम रोल निभा सकते है। बस जरूरत है तो मिलकर एक छक्का मारने की।
 बदलाव से मुक्ति नहीं तो कम से कम भ्रष्टाचार सहमेगा तो जरूर। माहोल तो बनेगा। मौजूदा दलों से तो ऐसी आशा भी करना अपने आपको धोखा देने से कम नहीं है। बेटियां आज हर क्षेत्र में उड़ान भर रही हैं। वे लगातार अधिकार सम्पन्न हो रही हैं। हमारे नेताओं में नारी हितैषी कहलाने की जमकर होड़ लगी हैं। नारी को बराबरी का कानूनी दर्जा देने की इस आपाधापी में। अधिकारों के हस्तांतरण के साथ संस्कारों के दायित्व का ध्यान दिलाने की जोहमत कोई भी नहीं उठा रहा है। अब इस दायित्व को निभाने का भार भी बेटियों के कंधों पर आ गया है। हमें इस बात को नहीं भूलना चाहियें। परिवार एक साइकिल की तरह है। इसका अगला पहिया पुरूष तो पिछला नारी है। दोनों को अगर बराबरी में लगा दिया जाये, तो साइकिल का विकृत रूप सामने आयेगा। और साइकिल का चलना मुश्किल हो जायेगा। पिछला पहिया जब तक अगले के पीछे चलने को राजी नहीं होगा, तब तक साइकिल आगे नहीं बढ़ेगी। और यही वेदों का सत्य है। परिवार कानून या प्रतिस्पर्धा से नहीं चलते। लाइन एक दूसरे के पीछे चलने से बनती है। मान सम्मान, आदर सत्कार से बनती है। कानून अंतिम रूप से परिस्थिती विशेष के लिए होते है। प्रतिस्पर्धा आर्थिक आजीविका मजबूत बनाने के लिए होती है। जब तक अधिकारों के हस्तांतरण के साथ-साथ नारी संस्कारों को हस्तांतरित नहीं किया जाता। तब तक हम कह सकते है कि हम एक अंधकार से निकल कर दूसरे अंधेरे की ओर ही बढ़ रहे हैं।
बिना जीवन दर्शन के जीवन नीरस और दुखों से भरा होता है। यदि हमें अपना रास्ता पहले से मालूम हो तो राहें आसान हो सकती है। गीता आत्मा, परमात्मा और प्रकृति में तारतम्य बिठाने का सार है। इसका पाठ करके आप जीवन को सुलभ बना सकते है। उदार, मानवीय व्यक्तित्व के धनी बन सकते हैं। संयम, निडर होकर दुखों का सामना कर सकते है। गीती ज्ञान किसी अनहोनी को रोक सकती है। आपके हाथ बुरा नहीं होने देती। मेरा विचार है, युवाओं को अपने शिक्षा काल में इस श्रेष्ठतम् जीवन दर्शन को अपने भीतर उतार लेना चाहिए। बस आवश्यकता इस बात की है। प्रति दिन गीता दो पेज का पाठ करें। लेकिन पूजा के साथ इत्मीनान से। हबड़दबड़ में नहीं। तो जीवन में किसी प्रकार का भटकाव या संकट पास भी नहीं आयेगा। अगर आयेगा भी तो उससे आसानी से निपटा जा सकेंगा।
देशवासियों के जीवन में नववर्ष मंगलमय हो।.......हम सबके  जीवन में नये साल का प्रभात उमंग और उस्साह लेकर आये। .........और हमारी रग-रग को ऊर्जा से भर दें।.......हम सभी हर कदम पर जीवन संघर्ष में विजयी हो।.......इसी मनोकामना के साथ........!
( ऊं राष्ट्राय स्वा: , इदम् राष्ट्राय, इदम् न मम् )

Thursday 27 December 2012

दूसरी बार भी नहीं चूके चौहान

प्रभात की विदाई के मायने

  1. राजनीति का निश्चल जुनून ले डूबा प्रभात को
  2. चौहान ने की संदेह की गुंजाइश दूर
  3. प्रभात समन्वय को नहीं दे पाये लोकतांत्रिक आकार
  4. अनिल माधव दवे की हो सकती है वापसी

भारतीय जनता पार्टी की मध्यप्रदेश ईकाई से पूर्व अध्यक्ष प्रभात झा की एकाएक हुई विदाई के अपने मायने है। लगता है इस पूरी प्रक्रिया में शिवराज सिंह चौहान दूसरी बार भी नहीं चूके। वे नहीं चाहते थे कि उनके आसपास किसी भी तरह की संदेह की गुंजाइश पले-बड़े। जो आगे चलकर उनके लिए किसी भी प्रकार का खतरा या चिंता का सबब बनें। अपनी इसी दूरगामी नजर से। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अवसर आते ही अपने वीटों पावर का इस्तेमाल कर राजनीति के इसे जुनूनी प्रभात के खतरे को दूर कर दिया। चौहान भली प्रकार समझते थे। ये वही प्रभात है जो देश की राजनीति की माटी बिहार में जन्मा है। जिसने कुशाभाऊ ठाकरे जैसे अमर शिल्पी के सानिध्य में काम किया है। जब शिवराज सिंह चौहान पांव-पांव वाले भैया के रूप में क्षेत्र की माटी रौंदने में लगे थे। तभी ये प्रभात भी अंदर ही अंदर संगठन को गढ़ने में रात –दिन एक किए थे। और प्रभात ने संगठन में खलबली मचाने की शक्ति प्राप्त कर ली। 2003 के विधान सभा चुनावों को फतह करने में प्रभात का भी अहम योगदान रहा। लेकिन उमा भारती ने मुख्यमंत्री बनते ही झा की विदाई दिल्ली के लिए करवा दी। दिल्ली में भी प्रभात ने पार्टी के मीडिया सेल को नये आयाम दिये। इसी दौरान उन्होंने अपनी लेखनी से पार्टी के साहित्य को भी समृद्ध किया। साथ ही साथ दिल्ली में अटल जी, अडवानी के अलावा पार्टी के केंद्रीय नेताओं से निकटता बढ़ाई। प्रभात ने धीरे-धीरे पार्टी की थिंक टैंक लॉबी में अपना एक अहम स्थान बना लिया। यही वो पहलू है जिनसे शिवराज को खतरा महसूस हो रहा था। जिसे अवसर आते ही चौहान दूर करने से नहीं चूंके।
इतना ही नहीं इस दौरान प्रभात भी गल्ती दर गल्ती करते गएं। वे कहीं न कहीं अपनों के साथ समन्वय बिठाने में भी फेल रहें। जब से प्रभात की बीजेपी कार्यालय में वापसी हुई। तब से चुनाव प्रबंधन के चाणक्य का तमगा हांसिल कर चुके सांसद अनिल माधव दवे ने तो कार्यालय से दूरी ही बढ़ा ली। अपना लोहा मनवा चूके पूर्व संगठन मंत्री कप्तान सिंह सोलंकी भी दूर ही रहे। लंबे समय तक अपने निकट सहचर रहे रघुनन्दन शर्मा के को भी नहीं साध पाये। वे पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती के भी मुखर विरोधी बने रहे है। उल्टे, राजनीतिक वीथिकाओं के भंवर से बाहर निकलकर पार्टी में लौटी। इस तेज तर्रार नेत्री को कार्यकर्ता के तौर पर सम्मानीय अतिथि का हक नहीं दिला पाये। जिसे 2003 में प्रदेश से कांग्रेस की विदाई का श्रेय जाता है।
अन्यथा तस्वीर अलग होती। विरोध के स्वर बुलंद नहीं होते। होते भी तो इन सबके प्रभाव में दब जाते। इन सब दूरियों के पीछे प्रभात में आल इन वन के गुण होना या अपने आप में समझना हो सकता है। प्रभात को उनकी जल्द प्रतिक्रियां वाली शैली ने भी काफी नुकसान पहुंचाया। वे अपने सामने किसी को कुछ ना समझने वाले नेता कहे जाने लगे। राजनीति में विपक्ष पर वार तो जायज है, लेकिन अपनों पर नहीं।
शिवराज की दूरर्शीता ही कहों........शिवराज सिंह चौहान दूसरी बार भी नहीं चूके। पहली बार उमा भारती के समय। और अब प्रभात के समय। आखिर उन्होंने नरेन्द्र सिंह तोमर के तौर पर अपनी पसंद के अध्यक्ष की ताजपोशी करवा ही ली। और हो भी क्यों न एक सफल शासक के लिए यही यथोचित है। वह परिस्थितियों को अपने पक्ष में करें। इन सबके बावजूद। आने वाले 2013 के विधान सभा चुनावों में अपनी काबलियत दिखाने का मलाल तो प्रभात को रहेगा। यही वो अवसर था। जहां से झा आफिशियल नेता के आरोपों से बाहर निकल सकते थे।
खैर, पार्टी में आकाश और भी है.......चरैवेति...चरैवेति...। संगठन गढ़े चलों......बढ़े चलों......संगठन की राह पर चले चलों।

( ऊं राष्ट्राय स्वा: , इदम् राष्ट्राय, इदम् न मम् )