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Wednesday 20 June 2012

अमर शहीद डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी- 23 जून पुण्य तिथि पर विशेष

अमर शहीद डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी

23 जून पुण्य तिथि पर विशेष


23 जून यानी आत्म अवलोकन का दिन। इसी दिन महान् देश भक्त डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी चिर निद्रा में निमग्न हुए थे। इस दिन को भारतीय जनता पार्टी देश भर में आतंकवाद विरोधी दिवस के तौर पर मनाती है। आज लगभग पूरा विश्व आतंकवाद की पीड़ा से भयभीत है। दिन दूनी-रात चौगुनी गति से ये समस्या आकार ले रही है। भारत सबसे अधिक लम्बे समय से आतंकवाद की मार झेल रहा है। उदार व्यवहार के चलते हमारे देश ने अधिक कीमत अदा की है। इस अमानवीय अभिशाप के पीछे इतिहास के उन कर्णधारों की छोटी-छोटी भूले हैं, जिन्होंने इनके बीज रोपित किएं। आज हमें उनकी कीमत चुकानी पड़ रही है। समय रहते आतंकवाद काबू में नहीं हुआ तो आने वाली पीढ़ी शायद ही हमें माफ कर पायेगी। आज 23 जून, अमर शहीद डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पुण्यतिथि के अवसर पर हमें संकल्प लेना होगा कि इस बर्बर बुराई के विरोध में हम सब एक हैं और आवश्यकता पड़ने पर प्राणोत्सर्ग कर समाज को इस अभिशाप से मुक्ति दिलवायेंगे।
भारत में आतंकवाद के बीज तुष्टिकरण में निहित है। कांग्रेस स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही तुष्टिकरण की नीति पर चलती रही। खिलाफत आंदोलन को समर्थन देकर गांधी जी ने एक अदूरदर्शी कदम उठाया। बंगाल के मुस्लिम इलाकों में हिन्दूओं पर हुए अमानुषिक अत्याचारों पर गांधी जी की टिप्पणी- हिन्दूओं को हानि उठाकर भी मुसलमान भाईयों को अपने साथ मिलाना चाहिए ने मुखर्जी को मर्मान्तक तक पीड़ा पहुंचाई। तभी उन्हें अहसास हुआ कि गांधी जी की अहिंसावादी नीति के चलते वह दिन दूर नहीं, जब समूचा बंगाल पाकिस्तान का अधिकार क्षेत्र बन जायेगा। सन् 1950 में पूर्वी बंगाल में, जब हिन्दूओं की सम्पत्ति लूटी-खसोटी गई, उनकी माता-बहनों-बीवीओं का धर्म भ्रष्ट किया गया और पांच हजार से अधिक हिन्दूओं की हत्या कर दी गई। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू जी द्वारा किए गए लियाकत अली पैक्ट की कागजी खानापूर्ती से दुखी होकर डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इस पैक्ट का खुलकर विरोध किया। मुखर्जी पर सांप्रदायिक होने के आरोप लगने लगें। फलस्वरूप नये राजनीतिक दल भारतीय जनसंघ का उदय हुआ, जो आज बीजेपी के नाम से जाना जाता है। डॉक्टर मुखर्जी ने विरोधी नेता के तौर पर अपनी जोरदार भूमिका से दिखा दिया कि सरकार की दुर्बल नीतियों के विरोध में भी कोई बोलने वाला है। ईमानदारी से स्वीकार किया जाए तो पश्चिम बंगाल को भारत से अलग नहीं करने देने में डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी को श्रेय जाता है। कश्मीर में शेख अबदुल्ला से नेहरू को पूरी सहानुभूति थी। आश्चर्य तो इस बात का था कि नेहरू जम्मू-कश्मीर का शत्-प्रतिशत विलय भारत में मानते थे। फिर भी भारत सरकार से बिना प्रवेश-पत्र लिए वहां प्रवेश नहीं किया जा सकता था। जम्मू-कश्मीर प्रजा परिषद् द्वारा इस नीति के विरोध में आंदोलन छेड़ने पर सरकार का रवैया बड़ा कठोर हो गया। लगभग ढाई हजार सत्याग्रही गिरफ्तार किएं गए। तीस व्यक्ति गोली के शिकार हुए। डॉक्टर मुखर्जी बिना परमिट लिए स्वयं जम्मू-कश्मीर के लिए रवाना हुए। मार्ग में उनके पीछे भारी जन सैलाब उमड़ पड़ा। मुखर्जी ने स्पष्ट कहा- पंडित नेहरू एक तिहाई कश्मीर पहले ही पाकिस्तान को भेंट कर चुके है। मैं अब भारत की एक इंच भूमि भी हाथ से नहीं जाने दूंगा। मुखर्जी को बंदी बना लिया गया। जेल में अचानक उनकी तबियत खराब हो गई। उचित उपचार के अभाव में 23 जून 1953 को महान् देश भक्त डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी को नियती ने हमेशा-हमेशा के लिए हमारे से छीन लिए। भारत माता के इस अमर सपूत का जीवन एक तपस्वी की भांति था। वह नीलकंठ की तरह जीवन पर्यन्त राष्ट्र की एकता के लिए विषपान करते रहे। विभाजन और उसके उपरांत हुए दंगों के बाद 1984 के शाहबानों प्रकरण ने भी जनमानस को उद्देलित कर आशंकित किया है। अब तो धर्म के आधार पर आरक्षण की पुरजोर वकालत हो रही है। सैन्य और सिविल सेवाओं में अल्पसंख्यकों की गिनती के कुत्सित प्रयास तक हुए। कश्मीर पर चल रही अधिक उदार नीति से कट्टरवाद प्रोत्साहित हो रहा है।
डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की धरोहर को आगे बढ़ाने वाले उनके अनुयायी भी उनके सपनों को सही दिशा देने में सफल नहीं रहे। बीजेपी ने डॉक्टर रूबिया सईद अपहरण प्रकरण के समय आतंकवाद पर अपनी शिथिल नीति का प्रारम्भ की। भारत के यात्री ऐरोप्लेन के हाईजेक होने के एवज में आतंकवादियों को छोड़कर कायरता की नीति का परिचय दिया। बीजेपी अपने सत्ताकाल में कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास करने में नाकाम रही।  कारगिल घुसपैठ और संसद के बाद लाल किले पर हुए आतंकी हमले के समय देश की जनता के साथ अन्तरराष्ट्रीय सहानुभूति पक्ष में होने के बावजूद बीजेपी ने कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति साबित की। वे अपने 6 साल के शासनकाल में बांग्लादेशी घुसपैठ पर रोक लगाकर घुसपैठियों का विस्थापन नहीं कर सकें। जिन्ना की मजार पर माथा टेक कृत्रिम राष्ट्रवाद को पैदा करने के प्रयास अवश्य हुए। ऐसे निराशा भरे माहौल में राष्ट्र सर्वोपरिता की भावना ही इस अमर शहीद के लिए हम सबकी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।  
(ऊँ राष्ट्राय स्वा:, इदम् राष्ट्राय, इदम् न मम् !) 22 जून 2012
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Saturday 9 June 2012

बीजेपी बनाम मोदी का असली सच

बीजेपी बनाम मोदी का असली सच

देश के दूसरे सबसे बड़े राजनीतिक दल बीजेपी में फिर एक बार अनिश्चितताओं के बादल छा गए हैं। यह पार्टी स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस का विकल्प बनकर तो उभरी। मगर वह भी अपने संगठन में  कांग्रेस की तरह ही कुछ मामलों में स्वस्थ परंपराओं को अपनाने से मुंह मोड़ती रही। कमोवेश बीजेपी भी कांग्रेस के ही राह पर चल निकली। बीजेपी अपने दल के भीतर ही पब्लिक लीडरशीप के चयन और लांचिंग की स्वस्थ परंपरा नहीं डाल सकीं। अपने संस्थापक अटल बिहारी बाजपेयी के सक्रिय रहने तक तो सब ठीक चलता रहा। लेकिन अपने दूसरे आधार स्तंभ लालकृष्ण आडवाणी के रहते ही महत्वाकांक्षाओं ने आकार ले लिया। वहीं कांग्रेस में भले वंशवाद के सहारे ही सही, नेतृत्व पर पार्टी की अंध सहमति रहने से कांग्रेस में कोई पेशोपेश की स्थिति नहीं बनती। बीजेपी एक दशक से सत्ता से बाहर चल रही है। अब 2014 में होने वाले लोकसभा के आम चुनाव के लिए प्रधानमंत्री पद के दावेदार के लिए मची आंतरिक होड़ ने पार्टी को बीच भंवर ला खड़ा कर दिया है।
बीजेपी पार्टी के भीतर आंतरिक प्रजातंत्र की दुहाई देकर अनेक अवसरों पर छद्म प्रजातंत्र को पोषित करती रही है। 2003 में मध्यप्रदेश में हुए विधानसभा के आम चुनावों में घोषित मुख्यमंत्री उमा श्री भारती से विधायकों का अपना नेता चुनने का संवैधानिक अधिकार तक छीन लिया। मध्यप्रदेश विधान सभा चुनावों में जनता ने उमा भारती को भारी बहुमत से विजयी बनाया था। फिर भी 2005 में शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री मनोनीत कर मध्यप्रदेश भेजा। जो प्रदेश की छः करोड़ जनता के साथ किसी छलावे से कम नहीं था। प्रोजेक्टेड सीएम के विषय पर दलील दी जाती रही कि जनता ने उमा भारती को नहीं पार्टी को वोट दिए। संगठन की सर्वोंपरिता के बहाने हुआ ये सब संवैधानिक तौर पर कैसे सुप्रीमों ठहराया जा सकता है।
अब लोकसभा के आगामी आम चुनावों से पहले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को बतौर प्रधानमंत्री लांच करने के ऊहापोह में उलझ गयी है। अपने नेता चयन के मामले पर पार्टी कोई स्पष्ट और हार्ड स्टैंड नहीं ले पा रही है। मोदी पार्टी के लिए जिताऊ उम्मीदवार होने के साथ जनता के लिए एक अच्छे पीएम हो सकते है। इन सबके बावजूद अहम् के रास्ते आगे बढ़ रही महत्वाकांक्षा और आम सहमति में संतुलन बिठाने की बजाय, पार्टी में फिर एक बार अप्रिय परंपराओं को स्थापित किया जा रहा है। नरेन्द्र मोदी की व्यक्तिगत अनबन के चलते बीजेपी के पूर्व राष्ट्रीय संगठन महामंत्री संजय जोशी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। पार्टी को उनकी सेवाओं और समर्पण से भी कोई सरोकार नहीं रहा। ऐसा ही कुछ उमा भारती के मामलें पर संघ परिवार के अप्रत्याशित मौन ने तो समर्पण को स्तब्ध ही कर दिया था। लगता है बीजेपी मिशन 2014 की पूर्व संध्या पर एक बार फिर अपनी पुरानी राह पकड़ बैक रोल में आ गयी है। शायद मोदी ने भी पार्टी से जो सींखा है उसी को ध्यान में रख एक-एक कदम फूंक-फूंककर रख रहे है। दूसरी ओर पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी रूठे बैठे है। वे खुद नहीं तो कम से कम अपनी शागिर्द सुषमा स्वराज को पीएम की कुर्सी पर देखना चाहते है। अब ऐसे में देखना है क्या पार्टी अपने नेता के चयन के लिए किसी स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपनाने की पहल करेगी ? जो पार्टी में निजी महत्वाकांक्षाओं पर लगाम लगाने बीजेपी के लिए वरदान साबित होगी।
(ऊँ राष्ट्राय स्वा:, इदम् राष्ट्राय, इदम् न मम् !) 10 जून 2012                                                                                                                                                                                                                                            
                        


    

Wednesday 6 June 2012

अधूरा सत्यमेव जयते !

अधूरा सत्यमेव जयते !

 रफ्तार से पूंजीवाद की ओर बढ़ते भारत में आजकल नेताओं, अफसरों, बाबाओं और अपने दिमागी फितूर से समाज की सबसे कमजोर नब्ज को पकड़ने वाले लोगों पर नोटों की बारिश हो रही हैं। अब मुण्डक उपनिषद् के अमर उपदेश “ सत्यमेव जयते” पर पैसों की मूसलधार बरसात हो रही है। हो भी क्यों ? न इसके पीछे पवित्र सम्बल जो है। और टाईटल के साये में समाज की सबसे तेज दुखती रग “ कन्या भ्रूण हत्या” पर हाथ जो रखा है। प्रयास और तरीका अच्छा है लेकिन वर्तमान को भुनाने के फेर में ये कहां की बात हुई कि हम एक खाई को पाटते समय हमारे सामने आकार ले रही दूसरी खाई को न रोके ? आज नारी स्वतंत्रता, घरेलू हिंसा, संरक्षण और प्रोत्साहन के नाम पर राजनीतिक दल, मीडिया, मानवाधिकार और सामाजिक संस्थाएं सभी एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ करने में लगे हैं। साथ ही समाज में अपने नैसर्गिंक दायित्व से मुंह मोड़ने वाला, एक ऐसा तबका भी तेजी से आकार ले रहा है, जो हमें संवेदनाओं से रहित पशुवत भविष्य देने तैयारी कर हैं। एक सुखद भविष्य गढ़ने, वर्तमान सुलझाने के साथ-साथ क्यों नहीं ? इसे रोकने कोई पहला कदम बढ़ा रहा है। लेकिन सबके अपने-अपने तात्कालिक हित जो हैं। देश में टेलीविजन और रेडियों पर प्रसारित हो रहा सत्यमेव जयते तब तक अधूरा रहेगा जब तक इसमें पूरक विषयों को नहीं जोड़ा जाता।
नारी प्रोत्साहन की आपाधापी में बढ़ रहे (create) अहम के चलते, हमें गांधी की उस सीख को भी प्रचारित करना होगा। जो पति-पत्नी को जीवन रूपी साइकिल के दो पहियों की तरह एक-दूसरे का प्रतिस्पर्धी नहीं मानकर पूरक मानते है। चाहे अगला पहिया पत्नी हो या पति। बराबर में दोनों पहियों को समानांतर लगाने पर साइकिल ही विकृत रूप ले लेगी। इस बात को समझते ही टूटते परिवारों और बिलखते बचपन की बढ़ती संख्या को रोका जा सकेंगा। प्रगति की राह पर कदमताल कर रही उच्च शिक्षित युवतियों पारिवारिक ईकाई के अंतिम उत्तरदायित्व को लेने से कतरा रही है। तंगी या परिवार में घटने वाले किसी अशुभ मामले में अभी भी पुरुष ही पहला दोषी होता हैं। इस जिम्मेवारी को अपने ऊपर लेने से कतराकर कतराकर नारी इस मामले में वह अपने को दूसरे स्थान पर ही देखना चाह रही हैं। इससे बराबरी के असली मायने आकार नहीं ले पा रहे हैं। प्राय: कामकाजी बहू अपने पैसों से ससुराल को चलाना अपमान मान रही हैं। उच्च पदों पर पहुंचने वाली लड़कियों के लिए तो गरीब-बेरोजगार लड़कों से शादी करना अपने स्टेटस के खिलाफ हैं। इसी वजह से इनमें से अधिकांश लड़कियां तो विवाह की आयु निकलने के बाद मानसिक अवसाद में घिर रही हैं। यहां तक कि कुंवारी तक रह जाती है। इस नये वर्ग में तलाक सामान्य हो चला हैं। उन्मुक्त आकाश में जीने की चाह में वह समाज की नैतिक सीमाओं को ठेगा दिखा रही हैं। अंदर ही अंदर पत्नी पीड़ित पतियों का सुप्त विस्तार हो रहा है। इसलिए भविष्य को बराबरी का एक संतुलित समाज देने। पारिवारिक ईकाई की अगुवाई कर रही महिलाओं के लिए जरूरी हो गया हैं कि वे समाज के अंतिम उत्तरदायित्व को भी सहज तौर पर संभालें।
अपना हित साधने में मसगूल, स्वतंत्रता के हिमायती तो युवाओं में तेजी से प्रचलन में आ रहे लिविंग टूगेदर को तो दूर समलैगिंक विवाह को भी कानूनी तौर पर अमली जामा पहनाने उतावले हो रहे हैं। यह नव उदित समाज तो परिवार सृजन के अपने नैसर्गिंक कर्तव्य को ही तिलांजलि दे। समाज की निरंतरता के ठहराव को ही आमंत्रण दे रहा हैं। मानव जीवन विपरित इस काम में युवतियां भी बराबर की भागीदार बन रही हैं।
एकाकीपन को भरने अब तो बुजुर्गों के विवाह सम्मेलन कर खूब ठहाके लगाएं जा रहे हैं। एक बेटी ससुराल से आकर माता-पिता का विवाह करा रही हैं, तो दूसरी ओर बहू तिरस्कार की पात्र बन रही हैं। माता-पिता के साथ बहू-बेटों की काउंसलिंग करवाने की बजाय, हम उन्हें विवाह बंधन में बांध रहे हैं। ये धनाढ्य बुजुर्ग आगे आकर किसी गरीब परिवार के बहु-बेटों को गोद नहीं लेकर अपने सामाजिक कर्तव्य से मुंह मोढ़ रहे हैं। “बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुन: आगमन होता है” की हकीकत को जाने बगैर ही प्रापर्टी के विवादों को न्यौता दे एक नये अवसाद को जन्म दे रहे हैं।
“ कन्या भ्रूण हत्या” पर चल रहे इसी सत्यमेव जयते के साथ यदि हमने इन समस्यों के निराकरण का प्रचार नहीं किया तो कन्या भ्रूण हत्या को रोकने पर विजय पाते ही हमें दूसरा सत्यमेव जयते शुरू करना होगा। अन्यथा भविष्य को एक संस्कारित परफैक्ट नारी देकर, लिंग भेद मिटाते हुए संतुलित समाज गढ़ने का हमारा सपना शायद ही पूरा होगा। वैसे भी समाज के नींचले स्तर पर तो शिक्षा के कमी के चलते रूढ़ी और परंपराओं के नाम कन्या भ्रूण हत्या अभिशाप बनी हुई हैं। लेकिन धनाड्य और मध्यम वर्ग के उच्च शिक्षित शहरी लोगों के लेवल पर यह तो एक सफेद अपराध बनता जा रहा हैं। वैसे भी समाज में कोई बीमारी ऊपर से ही नींचे आती हैं। प्रतिक्रियावादी ताकतों ने समाज में ऐसा माहौल बना दिया कि नारी उपभोग की वस्तु के साथ ही दासी बनकर रह गई। उसके जन्म तक को अशुभ माना जाने लगा। इन सबके चलते हमें कन्या भ्रण हत्या को रोकने ग्रास रूट तक जाने के साथ-साथ ऊपरी लोगों को इसके दायरे में लेने की ज्यादा जरूरत हैं।
वैसे भी मुख्य मंत्री, केंद्रीय मंत्री, प्रधान मंत्री से मिलने या एन.जी.ओ. से आह्वान करने से कुछ नहीं होने वाला। जब तक अपनी सोच के दायरे में भविष्य के हल को नहीं लिया जाता है। ये वे लोग हैं जो हमारे राज चिन्ह पर सुशोभित हो रहे सत्यमेव जयते को 65 सालों से देख रहे हैं। ना हम सुधरेंगे, और ना आपकों सुधरने देंगें- की राह पर चलने वाले इन नेताओं, अफसरों और दिमागी फितूर वालों की बजाय किसी का सत्यमेव जयते नहीं हुआ। अगर नेता और अफसर चाहते तो आज इस सत्यमेव जयते की जरूरत ही नहीं पड़ती। इसलिए जब तक समाज में नैतिक संवेदनाएं आंदोलित नहीं होती। तब तक सत्यमेव जयते पूरा नहीं होने वाला। लक्ष्मी, सती, सरस्वती और सीता की महान संस्कृति वाले इस देश में। काश ! भविष्य का कोई पारखी एक परफेक्ट मॉडल नारी समाज को आकार देने पूरा सत्यमेव जयते लेकर आगे आता......।
(ऊँ राष्ट्राय स्वा:, इदम् राष्ट्राय, इदम् न मम् !)
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बीजेपी में रीजेंट लीडरशीप का जोखिम ?

बीजेपी में रीजेंट लीडरशीप का जोखिम ?


अंग्रेजों ने अपनी नीति को अमली जामा पहनाने भारतीय राजे-रजवाड़ों में अपने रेजीडेंट नियुक्त कर दिये थे। ऐसा ही कुछ संघ ने रेजीडेंट लीडरशीप लांच कर भाजपा को आफत में डाल दिया है। पहले ही भाजपा आज तक अपने जनाधार वाले नेताओं को पचा नहीं पायी। कल्याण सिंह, बाबूलाल मरांडी, उमा भारती के बाद अब नरेंद्र मोदी निशाने पर है। वहीं वसुंधरा राजे सिंधिया और येदुरप्पा आलाकमान से सीधे जा भिड़ने से कोई गुरेज नहीं कर रहे हैं। जन नेताओं को बढ़वा नहीं देकर बीजेपी में जो जोखिम लिया जा रहा है, इससे पुराने कार्यकर्ताओं में पनप रही निराशा पार्टी में शिथिलता ला रही हैं। सबसे बढ़कर तो रेजीडेंट लीडरशीप राजनीतिक नेतृत्व की मूल अवधारणा के ही विपरित है।
पहले तो आरएसएस ने नितिन गडकरी को बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बतौर रीजेंट बनाकर दिल्ली भेजा। फिर अपनी इसी नीति को आगे बढ़ाते हुए मध्यप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, उत्तरांचल समेत दूसरे राज्यों में भी अपने रीजेंटों को संगठन के क्षत्रप बनाकर बिठा दिया। शायद इसके पीछे संघ की सोच रही हो कि भाजपा में अमरबेल का रूप ले रही गुटबाजी को रोकने में इससे काफी मदद मिलेगी। साथ ही ही यें रेजीडेंट कैप्टन के रोल में होंगें, लीडर के नहीं। इनसे अपेक्षा की गई थी कि ये रेजीडेंट मैदानी कार्यों में सीधे-सीधे भाग लेने की चेष्टा नहीं करेंगे। केवल सभी को संगठन के काम का बंटवारा करेंगे। इससे पार्टी में आपसी प्रतिस्पर्धा के चलते किसी भी योग्यता की उपेक्षा नहीं होंगी। बिना किसी लागलपेट के सबकों काम का समान अवसर मिलेगा। लेकिन-सत्ता पाई, काहे मद नाहीं। खेल भावना लेकर भेजे ये रीजेंट कप्तानी करेने की बजाय लीडर बनने लगें। मैदानी कामों में सीधे भाग लेकर खुद ही काम संभालने लगें। यहीं नहीं तपा-तप बयानबाजी भी उनकी आदत में शुमार हो गया। कभी-कभी तो ऐसा लगने लगता है कि कोई ऐसा दिन न आ जाये जब वह नेता पद की मांग करने लगें। शायद रीजेंटों ज्ञान नहीं रहा कि नेतृत्व की राह प्रभाव की मांग करती करती हैं, जो जमीन से ऊपर उठते हुए लंबे समय बाद ही क्रिएट होता है।
 बस यहीं वो आभास है जिसने बीजेपी में अंदरूनी उबाल ला दिया है। नेताओं को लगने लगा है कि 2014 के आम चुनावों में  रीजेंट लीडरशीप के बलबूते दिल्ली फतह करना दुस्कर है। शुरू से ही गडकरी की अप्रत्याशित नियुक्ति ने सबकों विस्मय में डाल दिया था। लेकिन तब 2009 की हार के आघात से परेशान माहौल में इस अवधारणा को मन मसोसकर मान लिया गया। अब 2014 के आम चुनाव की रणभेरी बजने वाली है, तो रीजेंट लीडरशीप के विरोध में स्वर मुखर हो चुके हैं। ये रीजेंट, जिनकी नियुक्ति का आधार केवल संघ के प्रति निष्ठा था, कसौटी पर खरे नहीं उतरें हैं। ये पार्टी की लोकप्रियता में कोई विशेष बढ़ोत्तरी नहीं कर पायें। और न ही इनके कार्यकाल में हुए चुनावों में कोई अतिरिक्त रिजल्ट फेवर में आयें।
अब ऐसे में पार्टी के लिए अध्यक्ष और नेता की तलाश ने पार्टी में उथल-पुथल मचा रखी है। भाजपा में काम कर रही दूसरी पीढ़ी गुजरात के सीएम नरेन्द्र मोदी में अपने भावी नेता बतौर प्रधानमंत्री को तलाशने लग गए हैं। इससे वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और उनके सिपहसालारों की भौहें तन गई हैं। एक ओर संघ ने रीजेंट लीडरशीप लांच कर बीजेपी को तो धर्म संकट में डाल रखा है। दूसरी ओर रीजेंट लीडरशीप लांच कर भारी जोखिम ले लिया है। जिसकी सफलता गहरे संदेह के घेरे में आती है। ऐसे हालातों में होता यू कि अध्यक्ष के लिए पहली पीढ़ी के किसी अनुभवी ऊर्जावान नेता का नाम आगे बढ़ाया जाता। और प्रधानमंत्री के पद की दावेदारी के चयन का आधार जनता में नेता की पैठ मात्र होता। ये स्वस्थ परंपरा पार्टी को लंबा अमरत्व देती। जिसके बलबूते संघ को अपनी रीति-नीति को बढ़ावा देना सरल होता। आज जनता अन्य सभी बातों को गौण मान विकास को अहम मान रही हैं। ऊपर से देश में भ्रष्टाचार और महंगाई से मची हाहाकार। ऐसे में बीजेपी को ही नहीं देश को भी एक ऐसे दबंग राहगीर की तलाश है, जो विकास के बलबूते सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तक पहुंचता हो। 
  (ऊँ राष्ट्राय स्वा:, इदम् राष्ट्राय, इदम् न मम् !28 मई 2012 

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