अधूरा सत्यमेव जयते !
रफ्तार से पूंजीवाद की ओर बढ़ते भारत में आजकल नेताओं, अफसरों, बाबाओं और अपने दिमागी फितूर से समाज की सबसे कमजोर नब्ज को पकड़ने वाले लोगों पर नोटों की बारिश हो रही हैं। अब मुण्डक उपनिषद् के अमर उपदेश “ सत्यमेव जयते” पर पैसों की मूसलधार बरसात हो रही है। हो भी क्यों ? न इसके पीछे पवित्र सम्बल जो है। और टाईटल के साये में समाज की सबसे तेज दुखती रग “ कन्या भ्रूण हत्या” पर हाथ जो रखा है। प्रयास और तरीका अच्छा है लेकिन वर्तमान को भुनाने के फेर में ये कहां की बात हुई कि हम एक खाई को पाटते समय हमारे सामने आकार ले रही दूसरी खाई को न रोके ? आज नारी स्वतंत्रता, घरेलू हिंसा, संरक्षण और प्रोत्साहन के नाम पर राजनीतिक दल, मीडिया, मानवाधिकार और सामाजिक संस्थाएं सभी एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ करने में लगे हैं। साथ ही समाज में अपने नैसर्गिंक दायित्व से मुंह मोड़ने वाला, एक ऐसा तबका भी तेजी से आकार ले रहा है, जो हमें संवेदनाओं से रहित पशुवत भविष्य देने तैयारी कर हैं। एक सुखद भविष्य गढ़ने, वर्तमान सुलझाने के साथ-साथ क्यों नहीं ? इसे रोकने कोई पहला कदम बढ़ा रहा है। लेकिन सबके अपने-अपने तात्कालिक हित जो हैं। देश में टेलीविजन और रेडियों पर प्रसारित हो रहा सत्यमेव जयते तब तक अधूरा रहेगा जब तक इसमें पूरक विषयों को नहीं जोड़ा जाता।
नारी प्रोत्साहन की आपाधापी में बढ़ रहे (create) अहम के चलते, हमें गांधी की उस सीख को भी प्रचारित करना होगा। जो पति-पत्नी को जीवन रूपी साइकिल के दो पहियों की तरह एक-दूसरे का प्रतिस्पर्धी नहीं मानकर पूरक मानते है। चाहे अगला पहिया पत्नी हो या पति। बराबर में दोनों पहियों को समानांतर लगाने पर साइकिल ही विकृत रूप ले लेगी। इस बात को समझते ही टूटते परिवारों और बिलखते बचपन की बढ़ती संख्या को रोका जा सकेंगा। प्रगति की राह पर कदमताल कर रही उच्च शिक्षित युवतियों पारिवारिक ईकाई के अंतिम उत्तरदायित्व को लेने से कतरा रही है। तंगी या परिवार में घटने वाले किसी अशुभ मामले में अभी भी पुरुष ही पहला दोषी होता हैं। इस जिम्मेवारी को अपने ऊपर लेने से कतराकर कतराकर नारी इस मामले में वह अपने को दूसरे स्थान पर ही देखना चाह रही हैं। इससे बराबरी के असली मायने आकार नहीं ले पा रहे हैं। प्राय: कामकाजी बहू अपने पैसों से ससुराल को चलाना अपमान मान रही हैं। उच्च पदों पर पहुंचने वाली लड़कियों के लिए तो गरीब-बेरोजगार लड़कों से शादी करना अपने स्टेटस के खिलाफ हैं। इसी वजह से इनमें से अधिकांश लड़कियां तो विवाह की आयु निकलने के बाद मानसिक अवसाद में घिर रही हैं। यहां तक कि कुंवारी तक रह जाती है। इस नये वर्ग में तलाक सामान्य हो चला हैं। उन्मुक्त आकाश में जीने की चाह में वह समाज की नैतिक सीमाओं को ठेगा दिखा रही हैं। अंदर ही अंदर पत्नी पीड़ित पतियों का सुप्त विस्तार हो रहा है। इसलिए भविष्य को बराबरी का एक संतुलित समाज देने। पारिवारिक ईकाई की अगुवाई कर रही महिलाओं के लिए जरूरी हो गया हैं कि वे समाज के अंतिम उत्तरदायित्व को भी सहज तौर पर संभालें।
अपना हित साधने में मसगूल, स्वतंत्रता के हिमायती तो युवाओं में तेजी से प्रचलन में आ रहे लिविंग टूगेदर को तो दूर समलैगिंक विवाह को भी कानूनी तौर पर अमली जामा पहनाने उतावले हो रहे हैं। यह नव उदित समाज तो परिवार सृजन के अपने नैसर्गिंक कर्तव्य को ही तिलांजलि दे। समाज की निरंतरता के ठहराव को ही आमंत्रण दे रहा हैं। मानव जीवन विपरित इस काम में युवतियां भी बराबर की भागीदार बन रही हैं।
एकाकीपन को भरने अब तो बुजुर्गों के विवाह सम्मेलन कर खूब ठहाके लगाएं जा रहे हैं। एक बेटी ससुराल से आकर माता-पिता का विवाह करा रही हैं, तो दूसरी ओर बहू तिरस्कार की पात्र बन रही हैं। माता-पिता के साथ बहू-बेटों की काउंसलिंग करवाने की बजाय, हम उन्हें विवाह बंधन में बांध रहे हैं। ये धनाढ्य बुजुर्ग आगे आकर किसी गरीब परिवार के बहु-बेटों को गोद नहीं लेकर अपने सामाजिक कर्तव्य से मुंह मोढ़ रहे हैं। “बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुन: आगमन होता है” की हकीकत को जाने बगैर ही प्रापर्टी के विवादों को न्यौता दे एक नये अवसाद को जन्म दे रहे हैं।
“ कन्या भ्रूण हत्या” पर चल रहे इसी सत्यमेव जयते के साथ यदि हमने इन समस्यों के निराकरण का प्रचार नहीं किया तो कन्या भ्रूण हत्या को रोकने पर विजय पाते ही हमें दूसरा सत्यमेव जयते शुरू करना होगा। अन्यथा भविष्य को एक संस्कारित परफैक्ट नारी देकर, लिंग भेद मिटाते हुए संतुलित समाज गढ़ने का हमारा सपना शायद ही पूरा होगा। वैसे भी समाज के नींचले स्तर पर तो शिक्षा के कमी के चलते रूढ़ी और परंपराओं के नाम कन्या भ्रूण हत्या अभिशाप बनी हुई हैं। लेकिन धनाड्य और मध्यम वर्ग के उच्च शिक्षित शहरी लोगों के लेवल पर यह तो एक सफेद अपराध बनता जा रहा हैं। वैसे भी समाज में कोई बीमारी ऊपर से ही नींचे आती हैं। प्रतिक्रियावादी ताकतों ने समाज में ऐसा माहौल बना दिया कि नारी उपभोग की वस्तु के साथ ही दासी बनकर रह गई। उसके जन्म तक को अशुभ माना जाने लगा। इन सबके चलते हमें कन्या भ्रण हत्या को रोकने ग्रास रूट तक जाने के साथ-साथ ऊपरी लोगों को इसके दायरे में लेने की ज्यादा जरूरत हैं।
वैसे भी मुख्य मंत्री, केंद्रीय मंत्री, प्रधान मंत्री से मिलने या एन.जी.ओ. से आह्वान करने से कुछ नहीं होने वाला। जब तक अपनी सोच के दायरे में भविष्य के हल को नहीं लिया जाता है। ये वे लोग हैं जो हमारे राज चिन्ह पर सुशोभित हो रहे सत्यमेव जयते को 65 सालों से देख रहे हैं। ना हम सुधरेंगे, और ना आपकों सुधरने देंगें- की राह पर चलने वाले इन नेताओं, अफसरों और दिमागी फितूर वालों की बजाय किसी का सत्यमेव जयते नहीं हुआ। अगर नेता और अफसर चाहते तो आज इस सत्यमेव जयते की जरूरत ही नहीं पड़ती। इसलिए जब तक समाज में नैतिक संवेदनाएं आंदोलित नहीं होती। तब तक सत्यमेव जयते पूरा नहीं होने वाला। लक्ष्मी, सती, सरस्वती और सीता की महान संस्कृति वाले इस देश में। काश ! भविष्य का कोई पारखी एक परफेक्ट मॉडल नारी समाज को आकार देने पूरा सत्यमेव जयते लेकर आगे आता......।
(ऊँ राष्ट्राय स्वा:, इदम् राष्ट्राय, इदम् न मम् !)
http://khabar.ibnlive.in.com/livestreaming/IBN7/
रफ्तार से पूंजीवाद की ओर बढ़ते भारत में आजकल नेताओं, अफसरों, बाबाओं और अपने दिमागी फितूर से समाज की सबसे कमजोर नब्ज को पकड़ने वाले लोगों पर नोटों की बारिश हो रही हैं। अब मुण्डक उपनिषद् के अमर उपदेश “ सत्यमेव जयते” पर पैसों की मूसलधार बरसात हो रही है। हो भी क्यों ? न इसके पीछे पवित्र सम्बल जो है। और टाईटल के साये में समाज की सबसे तेज दुखती रग “ कन्या भ्रूण हत्या” पर हाथ जो रखा है। प्रयास और तरीका अच्छा है लेकिन वर्तमान को भुनाने के फेर में ये कहां की बात हुई कि हम एक खाई को पाटते समय हमारे सामने आकार ले रही दूसरी खाई को न रोके ? आज नारी स्वतंत्रता, घरेलू हिंसा, संरक्षण और प्रोत्साहन के नाम पर राजनीतिक दल, मीडिया, मानवाधिकार और सामाजिक संस्थाएं सभी एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ करने में लगे हैं। साथ ही समाज में अपने नैसर्गिंक दायित्व से मुंह मोड़ने वाला, एक ऐसा तबका भी तेजी से आकार ले रहा है, जो हमें संवेदनाओं से रहित पशुवत भविष्य देने तैयारी कर हैं। एक सुखद भविष्य गढ़ने, वर्तमान सुलझाने के साथ-साथ क्यों नहीं ? इसे रोकने कोई पहला कदम बढ़ा रहा है। लेकिन सबके अपने-अपने तात्कालिक हित जो हैं। देश में टेलीविजन और रेडियों पर प्रसारित हो रहा सत्यमेव जयते तब तक अधूरा रहेगा जब तक इसमें पूरक विषयों को नहीं जोड़ा जाता।
नारी प्रोत्साहन की आपाधापी में बढ़ रहे (create) अहम के चलते, हमें गांधी की उस सीख को भी प्रचारित करना होगा। जो पति-पत्नी को जीवन रूपी साइकिल के दो पहियों की तरह एक-दूसरे का प्रतिस्पर्धी नहीं मानकर पूरक मानते है। चाहे अगला पहिया पत्नी हो या पति। बराबर में दोनों पहियों को समानांतर लगाने पर साइकिल ही विकृत रूप ले लेगी। इस बात को समझते ही टूटते परिवारों और बिलखते बचपन की बढ़ती संख्या को रोका जा सकेंगा। प्रगति की राह पर कदमताल कर रही उच्च शिक्षित युवतियों पारिवारिक ईकाई के अंतिम उत्तरदायित्व को लेने से कतरा रही है। तंगी या परिवार में घटने वाले किसी अशुभ मामले में अभी भी पुरुष ही पहला दोषी होता हैं। इस जिम्मेवारी को अपने ऊपर लेने से कतराकर कतराकर नारी इस मामले में वह अपने को दूसरे स्थान पर ही देखना चाह रही हैं। इससे बराबरी के असली मायने आकार नहीं ले पा रहे हैं। प्राय: कामकाजी बहू अपने पैसों से ससुराल को चलाना अपमान मान रही हैं। उच्च पदों पर पहुंचने वाली लड़कियों के लिए तो गरीब-बेरोजगार लड़कों से शादी करना अपने स्टेटस के खिलाफ हैं। इसी वजह से इनमें से अधिकांश लड़कियां तो विवाह की आयु निकलने के बाद मानसिक अवसाद में घिर रही हैं। यहां तक कि कुंवारी तक रह जाती है। इस नये वर्ग में तलाक सामान्य हो चला हैं। उन्मुक्त आकाश में जीने की चाह में वह समाज की नैतिक सीमाओं को ठेगा दिखा रही हैं। अंदर ही अंदर पत्नी पीड़ित पतियों का सुप्त विस्तार हो रहा है। इसलिए भविष्य को बराबरी का एक संतुलित समाज देने। पारिवारिक ईकाई की अगुवाई कर रही महिलाओं के लिए जरूरी हो गया हैं कि वे समाज के अंतिम उत्तरदायित्व को भी सहज तौर पर संभालें।
अपना हित साधने में मसगूल, स्वतंत्रता के हिमायती तो युवाओं में तेजी से प्रचलन में आ रहे लिविंग टूगेदर को तो दूर समलैगिंक विवाह को भी कानूनी तौर पर अमली जामा पहनाने उतावले हो रहे हैं। यह नव उदित समाज तो परिवार सृजन के अपने नैसर्गिंक कर्तव्य को ही तिलांजलि दे। समाज की निरंतरता के ठहराव को ही आमंत्रण दे रहा हैं। मानव जीवन विपरित इस काम में युवतियां भी बराबर की भागीदार बन रही हैं।
एकाकीपन को भरने अब तो बुजुर्गों के विवाह सम्मेलन कर खूब ठहाके लगाएं जा रहे हैं। एक बेटी ससुराल से आकर माता-पिता का विवाह करा रही हैं, तो दूसरी ओर बहू तिरस्कार की पात्र बन रही हैं। माता-पिता के साथ बहू-बेटों की काउंसलिंग करवाने की बजाय, हम उन्हें विवाह बंधन में बांध रहे हैं। ये धनाढ्य बुजुर्ग आगे आकर किसी गरीब परिवार के बहु-बेटों को गोद नहीं लेकर अपने सामाजिक कर्तव्य से मुंह मोढ़ रहे हैं। “बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुन: आगमन होता है” की हकीकत को जाने बगैर ही प्रापर्टी के विवादों को न्यौता दे एक नये अवसाद को जन्म दे रहे हैं।
“ कन्या भ्रूण हत्या” पर चल रहे इसी सत्यमेव जयते के साथ यदि हमने इन समस्यों के निराकरण का प्रचार नहीं किया तो कन्या भ्रूण हत्या को रोकने पर विजय पाते ही हमें दूसरा सत्यमेव जयते शुरू करना होगा। अन्यथा भविष्य को एक संस्कारित परफैक्ट नारी देकर, लिंग भेद मिटाते हुए संतुलित समाज गढ़ने का हमारा सपना शायद ही पूरा होगा। वैसे भी समाज के नींचले स्तर पर तो शिक्षा के कमी के चलते रूढ़ी और परंपराओं के नाम कन्या भ्रूण हत्या अभिशाप बनी हुई हैं। लेकिन धनाड्य और मध्यम वर्ग के उच्च शिक्षित शहरी लोगों के लेवल पर यह तो एक सफेद अपराध बनता जा रहा हैं। वैसे भी समाज में कोई बीमारी ऊपर से ही नींचे आती हैं। प्रतिक्रियावादी ताकतों ने समाज में ऐसा माहौल बना दिया कि नारी उपभोग की वस्तु के साथ ही दासी बनकर रह गई। उसके जन्म तक को अशुभ माना जाने लगा। इन सबके चलते हमें कन्या भ्रण हत्या को रोकने ग्रास रूट तक जाने के साथ-साथ ऊपरी लोगों को इसके दायरे में लेने की ज्यादा जरूरत हैं।
वैसे भी मुख्य मंत्री, केंद्रीय मंत्री, प्रधान मंत्री से मिलने या एन.जी.ओ. से आह्वान करने से कुछ नहीं होने वाला। जब तक अपनी सोच के दायरे में भविष्य के हल को नहीं लिया जाता है। ये वे लोग हैं जो हमारे राज चिन्ह पर सुशोभित हो रहे सत्यमेव जयते को 65 सालों से देख रहे हैं। ना हम सुधरेंगे, और ना आपकों सुधरने देंगें- की राह पर चलने वाले इन नेताओं, अफसरों और दिमागी फितूर वालों की बजाय किसी का सत्यमेव जयते नहीं हुआ। अगर नेता और अफसर चाहते तो आज इस सत्यमेव जयते की जरूरत ही नहीं पड़ती। इसलिए जब तक समाज में नैतिक संवेदनाएं आंदोलित नहीं होती। तब तक सत्यमेव जयते पूरा नहीं होने वाला। लक्ष्मी, सती, सरस्वती और सीता की महान संस्कृति वाले इस देश में। काश ! भविष्य का कोई पारखी एक परफेक्ट मॉडल नारी समाज को आकार देने पूरा सत्यमेव जयते लेकर आगे आता......।
(ऊँ राष्ट्राय स्वा:, इदम् राष्ट्राय, इदम् न मम् !)
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good article
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