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Monday 9 July 2012

राष्ट्रपति चुनाव-2012 : बीजेपी फिर भटकी

राष्ट्रपति चुनाव-2012 : बीजेपी फिर भटकी

  1. वंशवाद की छाया से बाहर नहीं निकले चुना
  2. चुनाव प्रक्रिया की प्रासंगिकता से उठता विश्वास

किसी भी देश का राष्ट्राध्यक्ष निर्मल जल की तरह होना चाहिये। उसका देश की जनता पर प्रभाव इतना हो की वह जन-जन को गर्व से भर दे। देश का बच्चा-बच्चा उनसे मिलकर उछल पड़े। हर युवा उनके आह्वान भर से आत्म विश्वास से लबरेज हो जाये। हमारी हर एक सुबह एक नया उत्साह और उमंग लेकर आये। उनका देश में यहां-वहां आना-जाना एक सरकारी आयोजन बनकर रहने की बजाय एक ऐसा उत्सव बने जिसमें देश का हर नागरिक ही क्यों प्रत्येक जीव पशु-पक्षी, हिरण-बंदर उछलने-कूदने-चहकने लगें। कोयल मधुर स्वागत गीत गाकर झूम उठें। लेकिन ये सब तभी होगा जब इस पद पर विराजमान व्यक्ति का जीवन गरिमामयी उपलब्धियों से भरा और बेदाग हो। वह सबके लिए समान सम्माननीय ही नहीं श्रद्धेय भी हो। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम आजाद के समय ऐसा अवश्य महसूस किया गया। अभी भी वो देश में जहां जाते है वहां की आबोहवा को एक नई उमंग दे जाते है। लगता है पूर्व नहीं वर्तमान राष्ट्रपति आयोजन में आकर अपनी छाप छोड़ गये हो।
तेज रफ्तार से परिपक्व होते भारत के प्रजातंत्र के दिमाग में भी अब अपने राष्ट्राध्यक्ष की चयन प्रक्रिया की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठने लगे हैं। एक ओर तो हमारा लोकतंत्र अभी तक वंशवाद के साये से बाहर नहीं निकल पाया है। वहीं दूसरी ओर रही सही कमी देश में चल रहे गठबंधन के राजनीतिक दौर ने पूरी कर दी है। व्यावहारिक तौर पर हमारे इस मुखिया का चयन व्यक्ति विशेष की इच्छा का बंधक बनकर रह गया है। सभी दल उनके नेता अपने अच्छे-बुरे हितों को साधने में लगे हैं। मूल्यों को तिलांजली सी दे दी हैं। गठबंधनों के घटक हां में हां मिलाने की नीति पर काम कर रहे हैं।
ऐसे में चाल, चरित्र और चेहरे की दुहाई देने वाली जनसंघ की उत्तराधिकारी बीजेपी कैसे पीछे रहती। बीजेपी ने भी तो राष्ट्रपति चुनाव में  अपने मूल्यों के पतन का बीजारोपण पहले की कर दिया था। बीजेपी ने पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर शंकरदयाल शर्मा के विरोध में जीजी स्वैल को भारतीय जनता पार्टी समर्थित उम्मीदवार के रूप में उतारकर इस काम को अंजाम दिया था। जो कहीं से भी तार्किक नहीं था। बीजेपी की नीति गौ रक्षा के लिए आंदोलन चलाने और गौ हत्या पर रोक लगाने के लिए जनमत बनाने की रही है। स्वैल एक ईसाई धर्मावलंबी थे। वह गौ हत्या के विरोधी नहीं थे। संगठन में उनका कोई अहम योगदान नहीं था। भविष्य में पार्टी के लिए उनकी कोई उपयोगिता भी नहीं थी। बीजेपी के आम कार्यकर्ता की इच्छा स्वर्गीय राजमाता सिंधिया को राष्ट्रपति बनाने की थी। उस समय राजमाता से बेहतर कोई उम्मीदवार नहीं हो सकता था। इन सब बातों को दरकिनार कर बीजेपी नेतृत्व ने निजी संबंधों की सर्वोपरिता की नींव डाली।
अब फिर बीजेपी ने जुलाई 2012 में हो रहे राष्ट्रपति चुनावों में वही राह पकड़ ली है। उसे पुरानी गलती दोहारने में कोई हिचक महसूस नहीं हो रही है। बल्कि बीजेपी अपने पक्ष को वाजिब ठहराने एक से बढ़कर एक तर्क दे रही है। राष्ट्रपति पद के लिए बीजेपी समर्थित उम्मीदवार पीए संगमा पूर्वोत्तर राज्यों के ईसाई नेता है। जहां सबसे अधिक ईसाईकरण की समस्या है। यहां शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सम्मान की आड़ में मिशनरियों ने अलगाव के बीज बोने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने इन राज्यों में हिंदू धर्म को बचाने अनेक प्रकल्प चला रखे हैं। लालच में आकर भटके इन गरीब भोले-भाले आदिवासी भाईयों को घर लौटाने के लिए आरआरएस प्रयास कर रहा है। वह शुद्धिकरण आंदोलन जरिये घर वापसी के द्वार खोले है। बीजेपी भी आरएसएस की राजनीतिक ईकाई होने के नाते पूर्वोत्तर के ज्वलंत मामलों को जोरशोर से उठाती रही है। वह पूर्व के इन राज्यों के हालात को लेकर कांग्रेस को जिम्मेवार ठहराती रही है। इन सबकों अपने  अब बीजेपी इन सभी बातों को बाजू में रखकर पीए संगमा के समर्थन में एक से बढ़कर एक तर्क देते नहीं थक रही है। वह व्यक्ति एक लाभ दो की नीति पर चल पड़ी है। बीजेपी ने ईसाई और आदिवासी वोटों को साधने अपनी रीति-नीति को भूला दिया। बीजेपी इस कीमत के बल पर 2014 में होने वाले आम चुनावों को फतह करने का सपना देखने लगी है। या तो लगता है बीजेपी के पास कोई उम्मीदवार नहीं था, या फिर वह पहले से तयशुदा रिजल्ट वाले इस औपचारिक चुनाव में नहीं पड़ना चाहती थी। इन सबके बावजूद बीजेपी पीए संगमा के लिए नगाड़े बजाते घूम रही है। आमजन में भ्रम फैल रहा है कि इतने बड़े और मजबूत लोकतंत्र के राष्ट्राध्यक्ष का चुनाव ऐसे होता है।
एक ओर तो हमने राष्ट्रपति के चुनाव में वोटिंग करने वाले विधायक और सांसदों से अंतर आत्मा से वोट करने का उनका अधिकार छीन रखा है। इसके लिए चुनाव में खरीद-फरोख्त रोकने दलबदल कानून में व्हीप का कठोर प्रावधान कर दिया गया है। वहीं संविधान सभा ने भी राष्ट्रपति के चुनाव को सीधे जनता से कराने की बजाय अप्रत्यक्ष कराने की व्यवस्था की है। ताकि देश को इस सर्वोच्च किन्तु नाममात्र की कार्यपालिका के चुनाव पर होने वाले खर्च से बचाया जा सकें। साथ ही जनता से सीधे चुनकर आए  प्रभावशाली राष्ट्राध्यक्ष की वास्तविक शासनाध्यक्ष मंत्रिमंडल अर्थात प्रधानमंत्री के साथ कोई प्रतिस्पर्धा नहीं हो। हालात और बाधाएं जो भी हो। लेकिन अब समय आ गया है कि अभी नहीं तो आगामी 2019 में आने वाले राष्ट्रपति के चुनाव के पहले तक ही सही, हमें कोई बीच का रास्ता निकालना ही होगा। जिससे 2020 तक एक पूर्ण विकसित राष्ट्र बनने का सपना देख रहे भारत को हम महामहिम के चुनाव की गरिमामयी प्रक्रिया देकर हमारा सीना फूला सकें।
(ऊँ राष्ट्राय स्वा:, इदम् राष्ट्राय, इदम् न मम् !) 09 जुलाई 2012
http://indiatvnews.com/livetv/  

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