प्रभात की विदाई के मायने
- राजनीति का निश्चल जुनून ले डूबा प्रभात को
- चौहान ने की संदेह की गुंजाइश दूर
- प्रभात समन्वय को नहीं दे पाये लोकतांत्रिक आकार
- अनिल माधव दवे की हो सकती है वापसी
भारतीय जनता पार्टी की मध्यप्रदेश ईकाई से पूर्व
अध्यक्ष प्रभात झा की एकाएक हुई विदाई के अपने मायने है। लगता है इस पूरी
प्रक्रिया में शिवराज सिंह चौहान दूसरी बार भी नहीं चूके। वे नहीं चाहते थे कि
उनके आसपास किसी भी तरह की संदेह की गुंजाइश पले-बड़े। जो आगे चलकर उनके लिए किसी
भी प्रकार का खतरा या चिंता का सबब बनें। अपनी इसी दूरगामी नजर से। मुख्यमंत्री
शिवराज सिंह चौहान ने अवसर आते ही अपने वीटों पावर का इस्तेमाल कर राजनीति के इसे
जुनूनी प्रभात के खतरे को दूर कर दिया। चौहान भली प्रकार समझते थे। ये वही प्रभात
है जो देश की राजनीति की माटी बिहार में जन्मा है। जिसने कुशाभाऊ ठाकरे जैसे अमर
शिल्पी के सानिध्य में काम किया है। जब शिवराज सिंह चौहान पांव-पांव वाले भैया के
रूप में क्षेत्र की माटी रौंदने में लगे थे। तभी ये प्रभात भी अंदर ही अंदर संगठन
को गढ़ने में रात –दिन एक किए थे। और प्रभात ने संगठन में खलबली मचाने की शक्ति
प्राप्त कर ली। 2003 के विधान सभा चुनावों को फतह करने में प्रभात का भी अहम
योगदान रहा। लेकिन उमा भारती ने मुख्यमंत्री बनते ही झा की विदाई दिल्ली के लिए करवा
दी। दिल्ली में भी प्रभात ने पार्टी के मीडिया सेल को नये आयाम दिये। इसी दौरान
उन्होंने अपनी लेखनी से पार्टी के साहित्य को भी समृद्ध किया। साथ ही साथ दिल्ली
में अटल जी, अडवानी के अलावा पार्टी के केंद्रीय नेताओं से निकटता बढ़ाई। प्रभात
ने धीरे-धीरे पार्टी की थिंक टैंक लॉबी में अपना एक अहम स्थान बना लिया। यही वो
पहलू है जिनसे शिवराज को खतरा महसूस हो रहा था। जिसे अवसर आते ही चौहान दूर करने
से नहीं चूंके।
इतना ही नहीं इस दौरान प्रभात भी गल्ती दर गल्ती
करते गएं। वे कहीं न कहीं अपनों के साथ समन्वय बिठाने में भी फेल रहें। जब से
प्रभात की बीजेपी कार्यालय में वापसी हुई। तब से चुनाव प्रबंधन के चाणक्य का तमगा
हांसिल कर चुके सांसद अनिल माधव दवे ने तो कार्यालय से दूरी ही बढ़ा ली। अपना लोहा
मनवा चूके पूर्व संगठन मंत्री कप्तान सिंह सोलंकी भी दूर ही रहे। लंबे समय तक अपने
निकट सहचर रहे रघुनन्दन शर्मा के को भी नहीं साध पाये। वे पूर्व मुख्यमंत्री उमा
भारती के भी मुखर विरोधी बने रहे है। उल्टे, राजनीतिक वीथिकाओं के भंवर से बाहर
निकलकर पार्टी में लौटी। इस तेज तर्रार नेत्री को कार्यकर्ता के तौर पर सम्मानीय
अतिथि का हक नहीं दिला पाये। जिसे 2003 में प्रदेश से कांग्रेस की विदाई का श्रेय
जाता है।
अन्यथा तस्वीर अलग होती। विरोध के स्वर बुलंद
नहीं होते। होते भी तो इन सबके प्रभाव में दब जाते। इन सब दूरियों के पीछे प्रभात
में आल इन वन के गुण होना या अपने आप में समझना हो सकता है। प्रभात को उनकी जल्द
प्रतिक्रियां वाली शैली ने भी काफी नुकसान पहुंचाया। वे अपने सामने किसी को कुछ ना
समझने वाले नेता कहे जाने लगे। राजनीति में विपक्ष पर वार तो जायज है, लेकिन अपनों
पर नहीं।
शिवराज की दूरर्शीता ही कहों........शिवराज सिंह
चौहान दूसरी बार भी नहीं चूके। पहली बार उमा भारती के समय। और अब प्रभात के समय।
आखिर उन्होंने नरेन्द्र सिंह तोमर के तौर पर अपनी पसंद के अध्यक्ष की ताजपोशी करवा
ही ली। और हो भी क्यों न एक सफल शासक के लिए यही यथोचित है। वह परिस्थितियों को
अपने पक्ष में करें। इन सबके बावजूद। आने वाले 2013 के विधान सभा चुनावों में अपनी
काबलियत दिखाने का मलाल तो प्रभात को रहेगा। यही वो अवसर था। जहां से झा आफिशियल
नेता के आरोपों से बाहर निकल सकते थे।
खैर, पार्टी में आकाश और भी है.......चरैवेति...चरैवेति...।
संगठन गढ़े चलों......बढ़े चलों......संगठन की राह पर चले चलों।
(
ऊं राष्ट्राय स्वा: , इदम् राष्ट्राय, इदम् न मम् )
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