...1960 का
वो दशक
भारत की स्वतंत्रा का शुरूआती दौर। अभी दो दशक ही बीते थे। देश में कृषि उत्पादन बढ़ाने के सरकारी प्रयास चल रहे थे। लोगों की विशेषकर ग्रामीण जीवन की हालत बढ़ी दयनीय थी। ऊपर से प्रकृति की मार। कभी बरसात, तो कभी तुषार पाला, तो कभी ओलों की मार। फसलों को निगल जाती थी। न तो विपरीत मौसम में अधिक उत्पादन देने वाले बीज थे। मक्का, ज्वार, कोदों-कुटकी, उड़द जैसा मोटा अनाज ही नसीब था। किसी घर में गेंहू और चावल का भोजन बनने पर। वह दिन उस घर के बच्चों के लिए त्यौहार का दिन बन जाया करता। मोहल्ले के बच्चें उनका मुंह ताकतें। सड़क, बिजली, पेयजल और स्वास्थ्य सेवाओं का तो नाम ही सुना था।
हिन्दुस्तान के सुदूर इलाके बरार में बसा एक छोटा सा गांव बिहरगांव। जो आज मध्यप्रदेश के बैतूल जिले में आता है। सन् 2000 के दशक के आते-आते इस गांव को सड़क नसीब हो पायी। यहां एक ठेठ भारतीय किसान गुणवंत साहू रहता था। 1910 के दशक में जन्मे इस ठेठ भारतीय का पिछड़ेपन, प्राकृतिक आपदाओं, सामंतशाही और अंग्रेजों के अनाचार से सामना ही नहीं हुआ बल्कि उसे भोगा भी। गुणवंत अपने नाम के अर्थ अनुरूप ही परिश्रमी गुणों से भरपूर व्यक्तित्व का धनी था। ग्राम्य संस्कृति के गुण उसमें कूट-कूटकर भरे हुए थें।
कहते है अच्छी संतान सौभाग्यशाली मां-बाप के यहां जन्म लेती है। वह भी गुदड़ी में। प्रभु की इसी व्यवस्था के तहत इस किसान के यहां भी 1960 के दशक में एक बालक की किलकारिया गुंजती है। जिसका नाम बिना सोचे-समझे सूरज रखा जाता है। पंडित से पूछने की बात तो दूर। सही भी था। उस समय तो देश की तीन चौथाई जनता अपने बच्चों की जन्म तिथि तक याद रखने लायक भी साक्षर नहीं थे। सूरज अपने दो भाईयों विष्णुदास और रामेन्द्र बाद छोटा था। सूरज के बाद एक छोटी बहन सलिला भी इस घर में आयी।
( ऊं राष्ट्राय स्वाह, इदम् राष्ट्राय, इदम् न मम्)
http://aajtak.intoday.in/livetv.php
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 24 दिसम्बर 2016को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!