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Saturday 10 August 2013

हम अब अपनों के परतंत्र

            स्वतंत्रता दिवस पर विशेष

1.   हमें तोड़नी होगी जंजीरें
2.   आने वाला समय आम लोगों की हाथ में
3.   नेताओं की खींची लक्ष्मण रेखाओं को लांघना होगा
       
 देश 67वां स्वतंत्रता दिवस मनाने की तैयारी कर रहा है। भारत के इतिहास की अटल साक्षी। जो कभी नहीं डिगी। लाल किले की प्राचीर गर्व से फूली नहीं समा रही है। शायद यही सोचकर कि हर साल की तरह वो एक दिन फिर आ गया जब उसके आंगन में उल्लास और उमंग की चहल-पहल होगी। राष्ट्र ध्वज उसके माथे पर लहराएंगा। उसके अपने देश का नेतृत्व आम  लोगों की बेहतरी के लिए कदमों को आकार देंगा।
दूसरी ओर। लाल किला इस बात को भी सोंचकर सकते में है। यह कही थोड़ी देर के लिए तो नहीं। जो 66 साल से वो देखता-सुनता आ रहा है। उसे लगता है। पहले हम परायों के आधीन थे। अब तो हम अपनों के परतंत्र है। हमें अपनों ने ही अब जंजीरों में जकड़ लिया हैं। उनकी अपनी बनाई लक्ष्मण रेखाएं हैं। अब तो लगने लगा है। बेड़ियों को तोड़कर लक्ष्मण रेखाएं पार करनी होंगी।
देश में आज भी अप्रत्यक्ष तौर पर ही सही लेकिन प्रतिक्रियावाद क्रियान्वित हो रहा है। हमारे रहनुमा राजनीतिक दल ही नहीं चाहते कि देश में तेज रफ्तार से एक तार्किक राजनीतिक व्यवस्था विकसित हो। 66 साल बाद भी आज रिमोटेड नेतृत्व हमारा दुर्भाग्य बना हुआ है। इन नेताओं ने सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को कम करने के लिए लोकपाल तक हमें नहीं मिलने दिया। कमी-बिसी जो भी होती लेकिन ओम्डुसमैन का अस्तित्व ही एक डर का वातावरण तो कायम करता। महंगाई ने तो हर पल आम लोगों का जीना दूभर कर दिया है। सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ये महंगाई किसी अनहोनी की आहट सुना रही है। भगवान न करें जो किसी दिन सड़कों पर आकर व्यवस्था को न निगल लें।
 दृड़ राजनीतिक इच्छा शक्ति वाले स्वतंत्र नेतृत्व के अभाव में देश पड़ोसियों की धृष्टताओं को सहन करने पर मजबूर है। चीन बार-बार दुस्साहस कर चुनौती दे रहा है। खीझ मिटाने के लिए बौना पाकिस्तान हमारे साथ नित नये-नये अमानवीय हरकतें कर रहा है। कभी हमारे सैनिकों के सिर कांट ले जाता है, तो कभी हमारी ही सीमा में आकर हमारे सैनिकों की हत्या कर देता है। आतंकवादी गतिविधियों को भारत में अंजाम देना तो पाक के लिए आम बात हो गई है। इन सबके बावजूद हमारा संयम नहीं टूट रहा है।
उदारीकरण की आड़ में देश में पसरता पूंजीवाद अमीर-गरीब के बीच की खाई को दिन दुनी-रात चौगुनी गहरा बना रहा है। इस अंधी चाल में असंगठित क्षेत्र के लिए व्यावहारिक धरातल पर कुछ नहीं हो रहा है। उठाये गये कदम कागजों में सिमट कर रह गये हैं। बस चिंता है तो पूंजीपति और पूंजी की। सर्वहारा वर्ग दबता ही चला जा रहा है। जो भविष्य में लावा बनकर फूट सकता है। गरीब दो वक्त की रोटी का इंतजाम नहीं कर पा रहा है। दूसरी ओर अनाज करोड़ों टन अनाज खुले में आसमान के नींचे सड़ रहा हैं। गोदाम बनाने के काम को सरकार युद्ध स्तर पर नहीं चला पा रही है। नाश हो रहे अनाज को गरीबों में वितरित करने या बाजार की कीमतों को लगाम लगाने में उपयोग नहीं कर पायें।
बहन-बेटियों की सुरक्षा पर भी सरकारों अजीब-गरीब रवैया सामने आया। आज तक हम इनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं दे पाये हैं। कड़े कानून नहीं बना पाये। कड़ी सजा नहीं दे पाएं। भले पूरा देश क्यों न उबल गया है। हां उनके ऊपर लाठियां बरसाकर उन्हें तितर-बितर करने का काम बखूबी किया। उठती हुई आवाजों को कानून की लंबी औपचारिक प्रक्रियों में लपेट दिया।
शिक्षा के लोक व्यापीकरण की जगह उसका व्यापारीकरण इस कदर हो रहा है कि देश में शिक्षित युवा बेरोजगारों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही हैं। जो कभी भी सड़कों पर उतरकर अगुवाई कर सकता है। 
इन राजनीतिक दलों ने लोकपाल तो लोकपाल विधान सभाओं और संसद में महिलाओं को आरक्षण देने वाला बिल तक पास नहीं होने दिया। विधायिकाओं में महिलाओं को 33 फीसदी प्रतिनिधित्व देने वाले इस बिल को सालों से अपने-अपने राजनीतिक लाभ-हानि के जाल में उलझा रखा है। समाज की इस आधी आबादी को साथ बिठाने की प्रक्रियां तक पर वो सहमत नहीं पायें। हां ये सभी दल इस बात पर जरूर बिना लाग-लपेट के सहमत हो गएं कि सजा यापता व्यक्ति भी चुनाव लड़ सकता है। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले को कानून बनाकर बदलने में जरा देर नहीं लगाई। जिसमें कहा गया था कि कोई भी व्यक्ति जो दो साल की सजा भुगत चुका है वो कोई चुनाव नहीं लड़ सकता है।
 साथ विधान सभा या संसद से उसकी सदस्यता भी स्वत: ही समाप्त हो जायेगी। इस छोटे से कदम से राजनीति की आधी सफाई तो आसानी से हो जाती। लेकिन नेताओं को ऐ कैसे रास आता ? बहाना बना लिया कि इस फैसले को लागू करने से सार्वजनिक जीवन में विमुखता का संचार होगा। सार्वजनिक जीवन में अच्छे लोग आना कम हो जायेंगे। सार्वजनिक पदों के दायित्व के क्रियान्वयन में व्यवस्थागत कमी के चलते तो छोटी-मोटी गल्ती होना तो एक स्वाभाविक प्रक्रिया में आता है। इसलिए तब तक किसी व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। जब तक साबित नहीं हो जाता। उनका मानना है अभी जो लोग है वो सब अच्छे हैं। समाज में मौजूद अन्य लोग अनुभवहीन है। उनके ही हाथों में देश सुरक्षित हो सकता है। इसलिए कानून ही बदल दिया।
देश की जनता को भी इस स्वतंत्रता दिवस पर सोचना होगा कि नेताओं को दी इस स्वतंत्रता की पीछे कहीं हमारी मेहरबानी तो नहीं। जिसका वो अनुचित लाभ उठा रहे हैं। आम लोगों को मनन करना चाहिए कि इस बुराई को बड़ा करने में हमारी विमुखता ने तो खाद का काम नहीं किया। चिंतन कर जनता जनार्दन को जागना होगा कि वो क्या कर सकती हैं। उसके पास क्या लोकतांत्रिक और संवैधानिक साधन हैं। जिससे शांतिपूर्ण तरीके से वो इसका खात्मा कर सकती है। अब हम बालक नहीं रहें। बल्कि मानसिक आयु में बड़े हो गये हैं।

                          
आने वाले महीनों में होने वाले विधान सभा चुनावों और अगले साल होने वाले लोकसभा के आम चुनावों में हम अपनी परिक्वता एहसास इन नेताओं करा सकते हैं। अच्छे लोगों को चुनकर। सक्षम नेतृत्व को सामने लाकर। बेहतर राजनीतिक दलों को बागडौर देकर। इन सबके लिए चलाना होगा हमें मतदान का ब्रह्म अस्त्र। बुराईयों के विरोध में सड़कों पर एकजुट उतरकर। कमजोरों की मदद के लिए हजारों हाथ बढ़ाकर। जन आंदोलनों में निजी महत्वाकांक्षा का त्याग कर।
तब और अब में अंतर केवल इतना है कि अंग्रेजों के जमाने में हमारे हाथ में कुछ भी नहीं था। केवल प्राणोत्सर्ग के दृड़ संकल्प के बिना। जो बड़ा लंबा और दुरूह रहा। आखिर में हम परायों से स्वतंत्र हो हुएं। लेकिन हम तुरंत ही अपनों की गोद में जा गिरें। जिन्होंने हमें लोरी सुनाकर सुला दिया। हमें मंद नींद की घुंटी पिलाकर पालने में झुलाते रहें। ताकि वो अपना काम आसानी से कर सकें। हम बालक की तरह मीठी नींद में मंद-मंद मुस्कुराकर सपनों में विचरण करते रहें। अब बड़े हुए तो सामने समस्याएं मुंह फैलाये खड़ी हैं। लेकिन अब हमें जागना होगा। सामने आना होगा। अपने अधिकारों का प्रयोग करना होगा। एकता दिखानी होगी।
 यहीं इस स्वतंत्रता दिवस पर हमारी ओर राष्ट्र को एक सच्चा उपहार होगा।

(इदम् राष्ट्राय स्वा:, इदम् राष्ट्राय, इदम् न मम्)

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